कविताएं |
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देश-भक्ति की कविताएं पढ़ें। अंतरजाल पर हिंदी दोहे, कविता, ग़ज़ल, गीत क्षणिकाएं व अन्य हिंदी काव्य पढ़ें। इस पृष्ठ के अंतर्गत विभिन्न हिंदी कवियों का काव्य - कविता, गीत, दोहे, हिंदी ग़ज़ल, क्षणिकाएं, हाइकू व हास्य-काव्य पढ़ें। हिंदी कवियों का काव्य संकलन आपको भेंट! |
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Literature Under This Category |
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साजन! होली आई है!
- फणीश्वरनाथ रेणु | Phanishwar Nath 'Renu'
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साजन! होली आई है! सुख से हँसना जी भर गाना मस्ती से मन को बहलाना पर्व हो गया आज- साजन ! होली आई है! हँसाने हमको आई है! साजन! होली आई है! इसी बहाने क्षण भर गा लें दुखमय जीवन को बहला लें ले मस्ती की आग- साजन! होली आई है! जलाने जग को आई है! साजन! होली आई है! रंग उड़ाती मधु बरसाती कण-कण में यौवन बिखराती, ऋतु वसंत का राज- लेकर होली आई है! जिलाने हमको आई है! साजन ! होली आई है! खूनी और बर्बर लड़कर-मरकर- मधकर नर-शोणित का सागर पा न सका है आज- सुधा वह हमने पाई है ! साजन! होली आई है! साजन ! होली आई है ! यौवन की जय ! जीवन की लय! गूँज रहा है मोहक मधुमय उड़ते रंग-गुलाल मस्ती जग में छाई है साजन! होली आई है!
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बापू
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से, मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से। अंगार, विभूषण यह उनका विद्युत पीकर जो आते हैं, ऊँघती शिखाओं की लौ में चेतना नयी भर जाते हैं। उनका किरीट, जो कुहा-भंग करके प्रचण्ड हुंकारों से, रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित की धारों से। झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर, सहते ही नहीं, दिया करते विष का प्रचण्ड विष से उत्तर। अंगार हार उनका, जिनकी सुन हाँक समय रुक जाता है, आदेश जिधर का देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है।
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अर्जुन की प्रतिज्ञा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उसका लगा, मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा। मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ? युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से, अब रोष के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से । निश्चय अरुणिमा-मित्त अनल की जल उठी वह ज्वाल सी, तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही। साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं, पूरा करुंगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं। जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी, वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी। अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है, इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है, उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है, उन्मुक्त बस उसके लिये रौ'र'व नरक का द्वार है। उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है, पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है । अतएव कल उस नीच को रण-मध्य जो मारूँ न मैं, तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं। अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही, साक्षी रहे सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही। सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वध करूँ, तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ। |
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गुणगान
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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कलम, आज उनकी जय बोल | कविता
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल।
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वीर | कविता
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
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जो तुम आ जाते एक बार | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार
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अधिकार | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना।
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मैं नीर भरी दुःख की बदली | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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मैं नीर भरी दुःख की बदली, स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रंदन में आहत विश्व हँसा, नयनो में दीपक से जलते, पलकों में निर्झनी मचली ! मैं नीर भरी दुःख की बदली !
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अन्वेषण
- रामनरेश त्रिपाठी
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मैं ढूंढता तुझे था, जब कुंज और वन में। तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
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जलियाँवाला बाग में बसंत
- सुभद्रा कुमारी
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यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते, काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
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आखिर पाया तो क्या पाया?
- हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai
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जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा जब थाप पड़ी, पग डोल उठा औरों के स्वर में स्वर भर कर अब तक गाया तो क्या गाया?
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प्रभु ईसा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मूर्तिमती जिनकी विभूतियाँ जागरूक हैं त्रिभुवन में; मेरे राम छिपे बैठे हैं मेरे छोटे-से मन में;
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हम पंछी उन्मुक्त गगन के
- शिवमंगल सिंह सुमन
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हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
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मधुशाला | Madhushala
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला; पहले भोग लगा लूँ तेरा, फिर प्रसाद जग पाएगा; सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला। ।१।
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देशभक्ति | Poem on New Zealand
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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वंदन कर भारत माता का | काका हाथरसी की हास्य कविता
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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वंदन कर भारत माता का, गणतंत्र राज्य की बोलो जय । काका का दर्शन प्राप्त करो, सब पाप-ताप हो जाए क्षय ॥
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खिलौनेवाला
- सुभद्रा कुमारी
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वह देखो माँ आज खिलौनेवाला फिर से आया है। कई तरह के सुंदर-सुंदर नए खिलौने लाया है। हरा-हरा तोता पिंजड़े में गेंद एक पैसे वाली छोटी सी मोटर गाड़ी है सर-सर-सर चलने वाली। सीटी भी है कई तरह की कई तरह के सुंदर खेल चाभी भर देने से भक-भक करती चलने वाली रेल। गुड़िया भी है बहुत भली-सी पहने कानों में बाली छोटा-सा \\\'टी सेट\\\' है छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली। छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं हैं छोटी-छोटी तलवार नए खिलौने ले लो भैया ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार। मुन्नूौ ने गुड़िया ले ली है मोहन ने मोटर गाड़ी मचल-मचल सरला कहती है माँ se लेने को साड़ी कभी खिलौनेवाला भी माँ क्याख साड़ी ले आता है। साड़ी तो वह कपड़े वाला कभी-कभी दे जाता है। अम्मा तुमने तो लाकर के मुझे दे दिए पैसे चार कौन खिलौने लेता हूँ मैं तुम भी मन में करो विचार। तुम सोचोगी मैं ले लूँगा तोता, बिल्लीा, मोटर, रेल पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा ये तो हैं बच्चों के खेल। मैं तो तलवार ख़रीदूँगा माँ या मैं लूँगा तीर-कमान जंगल में जा, किसी ताड़का को मारुँगा राम समान। तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों- को मैं मार भगाऊँगा यों ही कुछ दिन करते-करते रामचंद्र मैं बन जाऊँगा। यही रहूँगा कौशल्याऊ मैं तुमको यही बनाऊँगा तुम कह दोगी वन जाने को हँसते-हँसते जाऊँगा। पर माँ, बिना तुम्हाेरे वन में मैं कैसे रह पाऊँगा? दिन भर घूमूँगा जंगल में लौट कहाँ पर आऊँगा। किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा तो कौन मना लेगा कौन प्यानर से बिठा गोद में, मनचाही चींजे़ देगा। |
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मेरा शीश नवा दो - गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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मेरा शीश नवा दो अपनी चरण-धूल के तल में। देव! डुबा दो अहंकार सब मेरे आँसू-जल में।
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माँ कह एक कहानी
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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"माँ कह एक कहानी।" बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?" "कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? माँ कह एक कहानी।" "तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।" "जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।" वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे, हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।" "लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।" "गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से, गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।" "हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!" चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया, इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।" "लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।" "माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी, तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।" "हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।" हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में, गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।" "सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।" राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?" "माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी। कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे? रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।" "न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"
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देश
- शेरजंग गर्ग
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ग्राम, नगर या कुछ लोगों का काम नहीं होता है देश संसद, सड़कों, आयोगों का नाम नहीं होता है देश
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वीरांगना
- केदारनाथ अग्रवाल | Kedarnath Agarwal
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मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा। लोहे जैसा तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।
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विडम्बना
- रीता कौशल
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मैंने जन्मा है तुझे अपने अंश से संस्कारों की घुट्टी पिलाई है । जिया हमेशा दिन-रात तुझको ममता की दौलत लुटाई है ।
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हिंदी जन की बोली है
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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एक डोर में सबको जो है बाँधती वह हिंदी है, हर भाषा को सगी बहन जो मानती वह हिंदी है। भरी-पूरी हों सभी बोलियां यही कामना हिंदी है, गहरी हो पहचान आपसी यही साधना हिंदी है, सौत विदेशी रहे न रानी यही भावना हिंदी है।
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पन्द्रह अगस्त
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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आज जीत की रात पहरुए, सावधान रहना! खुले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना।
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हम होंगे कामयाब
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब हम होंगे कामयाब एक दिन ओ हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन॥
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हिंदी मातु हमारी - प्रो. मनोरंजन
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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प्रो. मनोरंजन जी, एम. ए, काशी विश्वविद्यालय की यह रचना लाहौर से प्रकाशित 'खरी बात' में 1935 में प्रकाशित हुई थी।
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शास्त्रीजी - कमलाप्रसाद चौरसिया | कविता
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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पैदा हुआ उसी दिन, जिस दिन बापू ने था जन्म लिया भारत-पाक युद्ध में जिसने तोड़ दिया दुनिया का भ्रम।
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मेरी कविता
- कमला प्रसाद मिश्र | Kamla Prasad Mishra
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मैं अपनी कविता जब पढ़ता उर में उठने लगती पीड़ा मेरे सुप्त हृदय को जैसे स्मृतियों ने है सहसा चीरा
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ताजमहल
- कमला प्रसाद मिश्र | Kamla Prasad Mishra
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उमड़ा करती है शक्ति, वहीं दिल में है भीषण दाह जहाँ है वहीं बसा सौन्दर्य सदा सुन्दरता की है चाह जहाँ उस दिव्य सुन्दरी के तन में उसके कुसुमित मृदु आनन में इस रूप राशि के स्वप्नों को देखा करता था शाहजहाँ
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एक आँख वाला इतिहास
- दूधनाथ सिंह
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मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा-- रंग में काला और धुन में कठोर ।
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जयप्रकाश
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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झंझा सोई, तूफान रूका, प्लावन जा रहा कगारों में; जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में।
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आपकी हँसी
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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निर्धन जनता का शोषण है कह कर आप हँसे लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हँसे सबके सब हैं भ्रष्टाचारी कह कर आप हँसे चारों ओर बड़ी लाचारी कह कर आप हँसे कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा सहसा मुझे अकेला पा कर फिर से आप हँसे
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मुक्तिबोध की हस्तलिपि में कविता
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मख़मल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। पूरब-पच्छिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल सिंहासन पर बैठा, उनके तमगे कौन लगाता है। कौन-कौन है वह जन-गण-मन- अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।
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तोड़ो
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती को हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने
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गीत फ़रोश
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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जी हाँ हुज़ूर मैं गीत बेचता हूँ मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ मैं क़िस्म-क़िस्म के गीत बेचता हूँ
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महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविताएं
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविताएं |
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कभी कभी खुद से बात करो | कवि प्रदीप की कविता
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो । अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
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सुख-दुख | कविता
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर-दुख, सुख दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख ! सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन ! जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से, मानव-जग में बँट जाएँ दुख सुख से औ’ सुख दुख से ! अविरत दुख है उत्पीड़न, अविरत सुख भी उत्पीड़न; दुख-सुख की निशा-दिवा में, सोता-जगता जग-जीवन ! यह साँझ-उषा का आँगन, आलिंगन विरह-मिलन का; चिर हास-अश्रुमय आनन रे इस मानव-जीवन का !
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भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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यहाँ मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती को संकलित करने का प्रयास आरंभ किया है। विश्वास है पाठकों को रोचक लगेगा।
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ठाकुर का कुआँ | कविता
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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चूल्हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का ।
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निकटता | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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त्रास देता है जो वह हँसता है त्रसित है जो वह रोता है कितनी निकटता है रोने और हँसने में
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प्यारा वतन
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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( १)
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मंगलाचरण | उपक्रमणिका | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मंगलाचरण
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मैं दिल्ली हूँ
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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'मैं दिल्ली हूँ' रामावतार त्यागी की काव्य रचना है जिसमें दिल्ली की काव्यात्मक कहानी है। |
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मैं दिल्ली हूँ | एक
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं । अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ॥
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स्वप्न बंधन
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में! बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में! तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं सौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती, मानसि, तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती! तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छवि, तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि? तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि! तुम सौरभ-सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में, पतझर में लाती वसंत, रस-स्रोत विरस जीवन में, तुम प्राणों में प्रणय, गीत बन जाती उर कंपन में! तुम देही हो? दीपक लौ-सी दुबली कनक छबीली, मौन मधुरिमा भरी, लाज ही-सी साकार लजीली, तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली ? तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आई, तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई! कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन घर पाई!
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बाँध दिए क्यों प्राण
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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सुमित्रानंदन पंत की हस्तलिपि में उनकी कविता, 'बाँध दिए क्यों प्राण'
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दिविक रमेश की चार कविताएँ
- दिविक रमेश
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सुनहरी पृथ्वी
सूरज रातभर मांजता रहता है काली पृथ्वी को
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राखी | कविता
- सुभद्रा कुमारी
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भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज । कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज ।।
लो आओ, भुजदण्ड उठाओ इस राखी में बँध जाओ । भरत - भूमि की रजभूमि को एक बार फिर दिखलाओ ।।
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राखी की चुनौती | सुभद्रा कुमारी चौहान
- सुभद्रा कुमारी
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बहिन आज फूली समाती न मन में । तड़ित आज फूली समाती न घन में ।। घटा है न झूली समाती गगन में । लता आज फूली समाती न बन में ।।
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आशा का दीपक
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है; थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है। चिंगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से; चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से। बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है; थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है। अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का; सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का। एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ; वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा; लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही; अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा। और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
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भाई दूज
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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प्रभु या दास?
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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बुलाता है किसे हरे हरे, वह प्रभु है अथवा दास? उसे आने का कष्ट न दे अरे, जा तू ही उसके पास ।
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मैं तो वही खिलौना लूँगा
- सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
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'मैं तो वही खिलौना लूँगा'
मचल गया दीना का लाल -
'खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल-उछाल ।'
व्यथित हो उठी माँ बेचारी -
'था सुवर्ण - निर्मित वह तो !
खेल इसी से लाल, - नहीं है
राजा के घर भी यह तो ! '
राजा के घर ! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है ,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र तू ही कह तो । '
फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,
'मैं तो वही खिलौना लूँगा' -
मचल गया दीना का लाल ।
' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया शिशु राजकुमार , -
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारबार |
' वह तो मिट्टी का ही होगा ,
खेलो तुम तो सोने से । '
दौड़ पड़े सब दास - दासियाँ
राजपुत्र के रोने से ।
' मिट्टी का हो या सोने का ,
इनमें वैसा एक नहीं ,
खेल रहा था उछल - उछल कर
वह तो उसी खिलौने से । '
राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत - हेम - उपहार ,
' लूँगा वही , वही लूँगा मैं ! '
मचल गया वह राजकुमार ।
- सियारामशरण गुप्त
[ साभार - जीवन सुधा ]
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कृष्ण की चेतावनी
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है।
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कर्त्तव्यनिष्ठ
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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एक ने फेसबुक पर लिखा - पिताजी बीमार हैं... फिर अस्पताल की उनकी फोटो अपलोड कर दी फेसबुकिया यारों ने भी 'लाइक' मार-मार कर अपनी 'ड्यूटी' पूरी कर दी।
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कबीर वाणी
- नरेंद्र शर्मा
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हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई ! सदियों रहे साथ, पर दोनों पानी तेल सरीखे ; हम दोनों को एक दूसरे के दुर्गुन ही दीखे !
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एक भी आँसू न कर बेकार
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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एक भी आँसू न कर बेकार - जाने कब समंदर मांगने आ जाए! पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है, यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है, और जिस के पास देने को न कुछ भी एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है, कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार जाने देवता को कौनसा भा जाए!
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परशुराम की प्रतीक्षा
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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दो शब्द (प्रथम संस्करण)
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 1
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
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मैं और कुछ नहीं कर सकता था
- विष्णु नागर
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मैं क्या कर सकता था किसी का बेटा मर गया था सांत्वना के दो शब्द कह सकता था किसी ने कहा बाबू जी मेरा घर बाढ़ में बह गया तो उस पर यकीन करके उसे दस रुपये दे सकता था किसी अंधे को सड़क पार करा सकता था रिक्शावाले से भाव न करके उसे मुंहमांगा दाम दे सकता था अपनी कामवाली को दो महीने का एडवांस दे सकता था दफ्तर के चपरासी की ग़लती माफ़ कर सकता था अमेरिका के खिलाफ नारे लगा सकता था वामपंथ में अपना भरोसा फिर से ज़ाहिर कर सकता था वक्तव्य पर दस्तख़त कर सकता था और मैं क्या कर सकता था किसी का बेटा तो नहीं बन सकता था किसी का घर तो बना कर नहीं दे सकता था किसी की आँख तो नहीं बन सकता था रिक्शा चलाने से किसी के फेफड़ों को सड़ने से रोक तो नहीं सकता था
और मैं क्या कर सकता था- ऐसे सवाल उठा कर खुश हो सकता था मान सकता था कि अब तो सिद्ध है वाकई मैं एक कवि हूँ और वक़्त आ चुका है कि मेरी कविताओं के अनुवाद की किताब अब अंग्रेजी में लंदन से छप कर आ जाना चाहिए।
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वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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'वन्देमातरम्' बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा संस्कृत में रचा गया; यह स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत था। इसका स्थान हमारे राष्ट्र गान, 'जन गण मन...' के बराबर है। इसे पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सत्र में गाया गया था।
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वन्देमातरम् | राष्ट्रीय गीत
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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वंदे मातरम्, वंदे मातरम्! सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्यश्यामलाम्, मातरम्! वंदे मातरम्! शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्, सुखदाम् वरदाम्, मातरम्! वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
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माँ गाँव में है
- दिविक रमेश
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चाहता था आ बसे माँ भी यहाँ, इस शहर में।
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सोचेगी कभी भाषा
- दिविक रमेश
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जिसे रौंदा है जब चाहा तब जिसका किया है दुरूपयोग, सबसे ज़्यादा। जब चाहा तब निकाल फेंका जिसे बाहर। कितना तो जुतियाया है जिसे प्रकोप में, प्रलोभ में वह तुम्हीं हो न भाषा।
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माँ
- दिविक रमेश
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रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरे दूध बिलोने से पहले माँ चक्की पीसती, और मैं घुमेड़े में आराम से सोता।
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राधा प्रेम
- सपना मांगलिक
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मोर मुकट पीताम्बर पहने,जबसे घनश्याम दिखा साँसों के मनके राधा ने, बस कान्हा नाम लिखा राधा से जब पूँछी सखियाँ, कान्हा क्यों न आता मैं उनमें वो मुझमे रहते, दूर कोई न जाता द्वेत कहाँ राधा मोहन में, यों ह्रदय में समाया जग क्या मैं खुद को भी भूली, तब ही उसको पाया।
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नाग की बाँबी खुली है आइए साहब
- ऋषभदेव शर्मा
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नाग की बाँबी खुली है आइए साहब भर कटोरा दूध का भी लाइए साहब
रोटियों की फ़िक्र क्या है? कुर्सियों से लो गोलियाँ बँटने लगी हैं खाइए साहब
टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं और झुककर और झुककर जाइए साहब
मानते हैं उम्र सारी हो गई रोते गीत उनके ही करम के गाइए साहब
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धुंध है घर में उजाला लाइए
- ऋषभदेव शर्मा
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धुंध है घर में उजाला लाइए रोशनी का इक दुशाला लाइए
केचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी आदमी अब रीढ़ वाला लाइए
जम गया है मोम सारी देह में गर्म फौलादी निवाला लाइए
जूझने का जुल्म से संकल्प दे आज ऐसी पाठशाला लाइए
- डॉ.ऋषभदेव शर्मा (तरकश, 1996)
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हैं चुनाव नजदीक सुनो भइ साधो
- ऋषभदेव शर्मा
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हैं चुनाव नजदीक, सुनो भइ साधो नेता माँगें भीख, सुनो भइ साधो गंगाजल का पात्र, आज सिर धारें कल थूकेंगे पीक, सुनो भइ साधो
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छोटी कविताएं
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कलयुग
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कुंती की याचना
- राजेश्वर वशिष्ठ
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मित्रता का बोझ किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों पर पर उसने स्वीकार कर लिया था उसे किसी भारी कवच की तरह हाँ, कवच ही तो, जिसने उसे बचाया था हस्तिनापुर की जनता की नज़रों के वार से जिसने शांत कर दिया था द्रौणाचार्य और पितामह भीष्म को उस दिन वह अर्जुन से युद्ध तो नहीं कर पाया पर सारथी पुत्र राजा बन गया था अंग देश का दुर्योधन की मित्रता चाहे जितनी भारी हो पर सम्मान का जीवन तो यहीं से शुरु होता है!
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यह कवि अपराजेय निराला | कविता
- रामविलास शर्मा
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यह कवि अपराजेय निराला, जिसको मिला गरल का प्याला; ढहा और तन टूट चुका है, पर जिसका माथा न झुका है; शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती, लेकिन अभी संभाले थाती, और उठाए विजय पताका- यह कवि है अपनी जनता का!
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कबीर | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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एक दिन आप घर से बाहर निकलेंगे और सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर चिथड़ों में लिपटा बैठा होगा कबीर 'भाईजान , आप इस युग में कैसे ' --- यदि आप उसे पहचान कर पूछेंगे उससे तो वह शायद मध्य-काल में पाई जाने वाली आज-कल खो गई उजली हँसी हँसेगा उसके हाथों में पड़ा होगा किसी फटे हुए अख़बार का टुकड़ा जिस में बची हुई होगी एक बासी रोटी जिसे निगलने के बाद वह अख़बार के उसी टुकड़े पर छपी दंगे-फ़सादों की दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा और बिलख-बिलख कर रो देगा
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जीवन की आपाधापी में
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
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कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती नन्ही चींटीं जब दाना ले कर चढ़ती है चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगॊं मे साहस भरता है चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना न अखरता है मेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है जा-जा कर खाली हाथ लौट कर आता है मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो जब तक न सफल हो नींद-चैन को त्यागो तुम संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम कुछ किए बिना ही जय-जयकार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
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हरिवंशराय बच्चन की नये वर्ष पर कविताएं
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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यहाँ हरिवंशराय बच्चन की नये वर्ष पर लिखी गई कुछ कविताएं संकलित की हैं। विश्वास है पाठकों को अच्छी लगेंगी। |
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साथी, नया वर्ष आया है!
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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साथी, नया वर्ष आया है! वर्ष पुराना, ले, अब जाता, कुछ प्रसन्न सा, कुछ पछताता, दे जी-भर आशीष, बहुत ही इससे तूने दुख पाया है! साथी, नया वर्ष आया है!
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नववर्ष
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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स्वागत! जीवन के नवल वर्ष आओ, नूतन-निर्माण लिये, इस महा जागरण के युग में जाग्रत जीवन अभिमान लिये;
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हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन, मैं हूँ केवल पतदल-आसन, तुम सहज बिराजे महाराज।
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नये बरस में
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें तुम ने प्रेम की लिखी है कथायें तो बहुत किसी बेबस के दिल की 'आह' जाके चल सुन लें तू अगर साथ चले जाके उसका ग़म हर लें नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....
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मातृ-मन्दिर में
- सुभद्रा कुमारी
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वीणा बज-सी उठी, खुल गये नेत्र और कुछ आया ध्यान। मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा उत्सव का प्यारा सामान॥
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मंजुल भटनागर की कविताएं
- मंजुल भटनागर
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इस पृष्ठ पर मंजुल भटनागर की कविताएं संकलित की जा रही हैं। नि:संदेह रचनाएं पठनीय हैं, विश्वास है आप इनका रस्वादन करेंगे।
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ओ उन्मुक्त गगन के पाखी
- मंजुल भटनागर
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ओ उन्मुक्त गगन के पाखी मेरे आंगन आ के देख
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कब लोगे अवतार हमारी धरती पर
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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फैला है अंधकार हमारी धरती पर हर जन है लाचार हमारी धरती पर हे देव! धरा है पूछ रही... कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
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स्वामी विवेकानंद की कविताएं
- स्वामी विवेकानंद
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यहाँ स्वामी विवेकानंद की कविताएं संकलित की गई हैं।
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काली माता
- स्वामी विवेकानंद
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छिप गये तारे गगन के, बादलों पर चढ़े बादल, काँपकर गहरा अंधेरा, गरजते तूफान में, शत लक्ष पागल प्राण छूटे जल्द कारागार से--द्रुम जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके ।
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खड़ा हिमालय बता रहा है
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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खड़ा हिमालय बता रहा है डरो न आंधी पानी में। खड़े रहो तुम अविचल हो कर सब संकट तूफानी में।
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भारतीय | फीज़ी पर कविता
- जोगिन्द्र सिंह कंवल
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लम्बे सफर में हम भारतीयों को कभी पत्थर कभी मिले बबूल
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कभी गिरमिट की आई गुलामी
- जोगिन्द्र सिंह कंवल
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उस समय फीज़ी में तख्तापलट का समय था। फीज़ी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार जोगिन्द्र सिंह कंवल फीज़ी की राजनैतिक दशा और फीज़ी के भविष्य को लेकर चिंतित थे, तभी तो उनकी कलम बोल उठी:
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सात सागर पार
- जोगिन्द्र सिंह कंवल
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सात सागर पार करके भी ठिकाना न मिला सौ साल प्यार करके भी निभाना न मिला
कई जनमों से तो बिछड़े थे एक मां से हम दूसरी मां के आंचल में भी सिर छिपाना न मिला
पीढ़ियां खेली हैं ऐ देश तेरी गोद में फिर भी तेरी ममता का हमें नजराना न मिला
हम ने बंजर धरती में खिला दिए रंगीन फूल तेरी पूजा के लिये दो फूल चढ़ाना न मिला
खून पसीने से बनाया था जन्नत का चमन इस की किसी डाल पर भी आशियाना न मिला
हम तो पागल हो गये मंजिलों की खोज में इतनी भटकन के बाद भी कोई ठिकाना न मिला
हम ने क्या पाप किया समझ में आता नहीं वर्षों की लगन का हमें, कोई इवज़ाना न मिला
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गिरमिट के समय
- कमला प्रसाद मिश्र | Kamla Prasad Mishra
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दीन दुखी मज़दूरों को लेकर था जिस वक्त जहाज सिधारा चीख पड़े नर नारी, लगी बहने नयनों से विदा-जल-धारा भारत देश रहा छूट अब मिलेगा इन्हें कहीं और सहारा फीजी में आये तो बोल उठे सब आज से है यह देश हमारा
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मुक्ता
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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ज़ंजीरों से चले बाँधने आज़ादी की चाह। घी से आग बुझाने की सोची है सीधी राह!
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पुरखों की पुण्य धरोहर
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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जो फूल चमन पर संकट देख रहा सोता मिट्टी उस को जीवन-भर क्षमा नहीं करती ।
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नहीं मांगता
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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नहीं मांगता, प्रभु, विपत्ति से, मुझे बचाओ, त्राण करो विपदा में निर्भीक रहूँ मैं, इतना, हे भगवान, करो।
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तुलसी बाबा
- त्रिलोचन
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तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो । कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी, तीखी ।
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो । और वृक्ष गिर गए, मगर तुम थमे हुए हो । कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया, देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो । विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया, तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया, मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया, विघ्न विपद् के घन सरके, मुँह कहीं चुराया । आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया ।
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आज तुम्हारा जन्मदिवस
- नामवर सिंह | Namvar Singh
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आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
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हम स्वेदश के प्राण
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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प्रिय स्वदेश है प्राण हमारा, हम स्वदेश के प्राण।
अाँखों में प्रतिपल रहता है, ह्रदयों में अविचल रहता है यह है सबल, सबल हैं हम भी इसके बल से बल रहता है,
और सबल इसको करना है, करके नव निर्माण। हम स्वदेश के प्राण।
यहीं हमें जीना मरना है, हर दम इसका दम भरना है, सम्मुख अगर काल भी आये चार हाथ उससे करना है,
इसकी रक्षा धर्म हमारा, यही हमारा त्राण। हम स्वदेश के प्राण।
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सुभाषचन्द्र
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया । खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया, परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया । आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया । दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया ।।
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हौसला
- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
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कागज की नाव बही और डूब गई बात डूबने की नहीं उसके हौसले की है और कौन मरा कितना जिया सवाल ये नहीं बात तो हौसले की है बात तो जीने की है कितना जिया ये बात बेमानी है किस तरह जिया कागज़ी नाव का हौसला देखिये डूबना नहीं।
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भगतसिंह पर लिखी कविताएं
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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इन पृष्ठों में भगतसिंह पर लिखी काव्य रचनाओं को संकलित करने का प्रयास किया जा रहा है। विश्वास है आपको सामग्री पठनीय लगेगी।
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रंग दे बसंती चोला गीत का इतिहास
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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'रंग दे बसंती चोला' अत्यंत लोकप्रिय देश-भक्ति गीत है। यह गीत किसने रचा? इसके बारे में बहुत से लोगों की जिज्ञासा है और वे समय-समय पर यह प्रश्न पूछते रहते हैं।
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ज्ञान का पाठ
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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डॉ० कलाम को समर्पित....
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हिंदी रूबाइयां
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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कलगी बाजरे की
- अज्ञेय | Ajneya
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हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरी बाजरे की। अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद् के भोर की नीहार न्हायी कुँई। टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है या कि मेरा प्यार मैला है बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं। देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच। कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी : तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ- अगर मैं यह कहूँ- बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की? आज हम शहरातियों को पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक बिछली घास है या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी अकेली बाजरे की। और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है और मैं एकांत होता हूँ समर्पित। शब्द जादू हैं- मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?
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अकाल और उसके बाद
- नागार्जुन | Nagarjuna
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कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास‚ कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास कई दिनों तह लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त‚ कही दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
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चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
- त्रिलोचन
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चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है उसे बड़ा अचरज होता है: इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं|
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हमारी हिंदी
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
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पहचान
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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अपनी गली मोहल्ला अपना, अपनी बाणी खाना अपना, थी अपनी भी इक पहचान।
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कुछ झूठ बोलना सीखो कविता!
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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कविते! कुछ फरेब करना सिखाओ कुछ चुप रहना वरना तुम्हारे कदमों पर चलनेवाला कवि मार दिया जाएगा खामखां महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि तुम उसे जीवन देती हो
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एक अदद घर
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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जब माँ नींव की तरह बिछ जाती है पिता तने रहते हैं हरदम छत बनकर भाई सभी उठा लेते हैं स्तम्भों की मानिंद बहन हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा बहुएँ मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती हैं दीवाल में तब नई पीढ़ी के बच्चे खिलखिला उठते हैं आँगन-सा आँगन में खिले किसी बारहमासी फूल-सा तभी गमक-गमक उठता है एक अदद घर समूचे पड़ोस में सारी गलियों में सारे गाँव में पूरी पृथ्वी में
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हिन्दी भाषा
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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छ्प्पै
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इच्छाएं
- शिवनारायण जौहरी विमल
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दुबले पतंगी कागज़ का उड़ता हुआ टुकड़ा नहीं प्रसूती मन की बलवती संतान हैं।
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मेरे देश की आँखें
- अज्ञेय | Ajneya
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नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें - नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं... तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ - नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं... वन डालियों के बीच से चौंकी अनपहचानी कभी झाँकती हैं वे आँखें, मेरे देश की आँखें, खेतों के पार मेड़ की लीक धारे क्षिति-रेखा को खोजती सूनी कभी ताकती हैं वे आँखें... उसने झुकी कमर सीधी की माथे से पसीना पोछा डलिया हाथ से छोड़ी और उड़ी धूल के बादल के बीच में से झलमलाते जाड़ों की अमावस में से मैले चाँद-चेहरे सुकचाते में टँकी थकी पलकें उठायीं - और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं मेरे देश की आँखें...
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तुलसीदास | सोहनलाल द्विवेदी की कविता
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन? भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
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प्यार !
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
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प्यार! कौन सी वस्तु प्यार है? मुझे बता दो। किस को करता कौन प्यार है ? यही दिखा दो।।
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रावण या राम
- जैनन प्रसाद
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रामायण के पन्नों में रावण को देख कर, काँप उठा मेरा मन अपने अंतर में झाँक कर।
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भूले स्वाद बेर के
- नागार्जुन | Nagarjuna
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सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपनखा वचन बिसर गए देर के सबेर के बन गया साहूकार लंकापति विभीषण पा गए अभयदान शावक कुबेर के जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण हावी हुआ स्वर्णमरिग कंधों पर शेर के बुढ़भस की लीला है, काम के रहे न राम शबरी न याद रही, भूले स्वाद बेर के
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मुक़ाबला
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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दमदार ने पूरे दम से जान लड़ा दी मंज़िल पाने को,
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खेल का खेल
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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हार और जीत भोगते हैं तीनों ही - अनाड़ी, जुगाड़ी और खिलाड़ी। अनाड़ी को हारने पर आती है शर्म।
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एकता का बल
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कविता क्या है
- केदारनाथ सिंह
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कविता क्या है हाथ की तरफ उठा हुआ हाथ देह की तरफ झुकी हुई आत्मा मृत्यु की तरफ़ घूरती हुई आँखें क्या है कविता कोई हमला हमले के बाद पैरों को खोजते लहूलुहान जूते नायक की चुप्पी विदूषक की चीख़ बालों के गिरने पर नाई की चिन्ता एक पत्ता टूटने पर राष्ट्र का शोक आख़िर क्या है क्या है कविता ? मैंने जब भी सोचा मुझे रामचन्द्र शुक्ल की मूछें याद आयीं मूंछों में दबी बारीक-सी हँसी हँसी के पीछे कविता का राज़ कविता के राज पर हँसती हुई मूँछें !
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शहीद पूछते हैं
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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भोग रहे जो आज आज़ादी किसने तुम्हें दिलाई थी? चूमे थे फाँसी के फंदे, किसने गोली खाई थी?
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जो बीत गई सो बात गई
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अंबर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई
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भागी हुई लड़कियां
- आलोक धन्वा
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(एक)
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मेरी भाषा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मेरी भाषा में तोते भी राम-राम जब कहते हैं, मेरे रोम-रोम से मानो सुधा-स्रोत तब बहते हैं। सब कुछ छूट जाए, मैं अपनी भाषा; कभी न छोडूँगा। वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोडूंगा।। कभी अकेला भी हूँगा मैं तो भी सोच न लाऊँगा, अपनी भाषा में अपनों के गीत वहां भी गाऊँगा। मुझे एक संगिनी वहाँ भी अनायास मिल जावेगी, मेरे साथ प्रतिध्वनि देगी कली-कली खिल जावेगी।। मेरा दुर्लभ देश आज यदि अवनति से आक्रान्त हुआ, अंधकार में मार्ग भूल कर भटक रहा है भ्रांत हुआ। तो भी भय की बात नहीं है भाषा पार लगावेगी, अपने मधुर स्निग्ध, नाद से उन्नत भाव जगावेगी।
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घाटी के दिल की धड़कन
- हरिओम पंवार
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काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में
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ये गजरे तारों वाले
- डॉ रामकुमार वर्मा
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इस सोते संसार बीच, जग कर सज कर रजनी वाले ! कहाँ बेचने ले जाती हो, ये गजरे तारों वाले ?
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युगावतार गांधी
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर; गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
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युग-चेतना | कविता
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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मैंने दुख झेले सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने फिर भी देख नहीं पाए तुम मेरे उत्पीड़न को इसलिए युग समूचा लगता है पाखंडी मुझको ।
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बहुत वासनाओं पर मन से | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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बहुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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जाहिल मेरे बाने
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता
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कड़वा सत्य | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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एक लंबी मेज दूसरी लंबी मेज तीसरी लंबी मेज दीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति पुरुष-स्त्रियाँ युवक-युवतियाँ बूढ़े-बूढ़ियाँ सब प्रसन्न हैं
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जै जै प्यारे भारत देश
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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जै जै प्यारे देश हमारे तीन लोक में सबसे न्यारे । हिमगिरी-मुकुट मनोहर धारे जै जै सुभग सुवेश ।। जै जै... ।।१।।
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मैं दिल्ली हूँ | दो
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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जब चाहा मैंने तूफ़ानों के, अभिमानों को कुचल दिया । हँसकर मुरझाई कलियों को, मैंने उपवन में बदल दिया ।।
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भारत वर्ष की श्रेष्ठता | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ? फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहाँ । सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है , उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन ? भारत वर्ष है ।।१५।।
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अंतर्द्वंद्व
- रीता कौशल
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ऐ मन! अंतर्द्वंद्व से परेशान क्यों है? जिंदगी तो जिंदगी है, इससे शिकायत क्यों है?
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अँधेरे में
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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जिंदगी के... कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज पैरों की देती है सुनाई बार-बार... बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किंतु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है - वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह - खुद-ब-खुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और भव्य ललाट है, दृढ़ हनु कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है ! कौन मनु ?
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 2
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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(खण्ड दो)
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माँ | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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इस धरती पर अपने शहर में मैं एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में एक छोटे-से शब्द-सा आया था वह उपन्यास एक ऊँचा पहाड़ था मैं जिसकी तलहटी में बसा एक छोटा-सा गाँव था वह उपन्यास एक लंबी नदी था मैं जिसके बीच में स्थित एक सिमटा हुआ द्वीप था वह उपन्यास पूजा के समय बजता हुआ एक ओजस्वी शंख था मैं जिसकी ध्वनि-तरंग का हज़ारवाँ हिस्सा था हालाँकि वह उपन्यास विधाता की लेखनी से उपजी एक सशक्त रचना थी आलोचकों ने उसे कभी नहीं सराहा जीवन के इतिहास में उसका उल्लेख तक नहीं हुआ आख़िर क्या वजह है कि हम और आप जिन महान् उपन्यासों के शब्द बनकर इस धरती पर आए उन उपन्यासों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
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जानकी के लिए
- राजेश्वर वशिष्ठ
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मर चुका है रावण का शरीर स्तब्ध है सारी लंका सुनसान है किले का परकोटा कहीं कोई उत्साह नहीं किसी घर में नहीं जल रहा है दिया विभीषण के घर को छोड़ कर।
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नव वर्ष
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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नव वर्ष हर्ष नव जीवन उत्कर्ष नव।
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सागर के वक्ष पर
- स्वामी विवेकानंद
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नील आकाश में बहते हैं मेघदल, श्वेत कृष्ण बहुरंग, तारतम्य उनमें तारल्य का दीखता, पीत भानु-मांगता है विदा, जलद रागछटा दिखलाते ।
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अरे भीरु
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार । आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार । गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार-- इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार ।
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चीरहरण
- जैनन प्रसाद
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हँस रहे हैं आज कई दुशासन। द्रोपदी को निर्वस्त्र देख। और झुके हुए हैं गर्दन वीरों के। सोच रहें है-- इस आधुनिक जुग में कैसे वार करें तीरों के। चीखती हुई उस अबला की पुकार सभी को खल रहा है। आज कृष्ण की जगह लोगों में दुर्योधन पल रहा है ।
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रोटी और संसद
- सुदामा पांडेय धूमिल
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एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है।
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मातृभाषा
- केदारनाथ सिंह
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जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर
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बापू की विदा
- डॉ रामकुमार वर्मा
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आज बापू की विदा है! अब तुम्हारी संगिनी यमुना, त्रिवेणी, नर्मदा है!
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कस ली है कमर अब तो
- अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
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कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
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नर हो न निराश करो मन को
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो जग में रहके निज नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो न निराश करो मन को । संभलो कि सुयोग न जाए चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलम्बन को नर हो न निराश करो मन को । जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को । निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे सब जाय अभी पर मान रहे मरणोत्तर गुंजित गान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो न निराश करो मन को ।
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मुक्तिबोध की कविता
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण। रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।
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ऋतु फागुन नियरानी हो
- कबीरदास | Kabirdas
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ऋतु फागुन नियरानी हो, कोई पिया से मिलावे । सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है, सोई पिया की मनमानी, खेलत फाग अगं नहिं मोड़े, सतगुरु से लिपटानी । इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची, इक इक कुल अरुझानी । इक इक नाम बिना बहकानी, हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं, रूपहि माहिं समानी । जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके, तन- मन सबहि भुलानी। यों मत जाने यहि रे फाग है, यह कछु अकथ- कहानी । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह गति विरलै जानी ।।
- कबीर |
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चीन्हे किए अचीन्हे कितने | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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हुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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शब्द और शब्द | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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समा जाता है श्वास में श्वास शेष रहता है फिर कुछ नहीं इस अनंत आकाश में शब्द ब्रह्म ढूँढ़ता है पर-ब्रह्म को
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हमारा उद्भव | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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शुभ शान्तिमय शोभा जहाँ भव-बन्धनों को खोलती, हिल-मिल मृगों से खेल करती सिंहनी थी डोलती! स्वर्गीय भावों से भरे ऋषि होम करते थे जहाँ, उन ऋषिगणों से ही हमारा था हुआ उद्भव यहाँ ।। १८ ।।
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मैं दिल्ली हूँ | तीन
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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गूंजी थी मेरी गलियों में, भोले बचपन की किलकारी । छूटी थी मेरी गलियों में, चंचल यौवन की पिचकारी ॥
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 3
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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(खण्ड तीन)
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प्राण वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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हम भारतीयों का सदा है, प्राण वन्देमातरम् । हम भूल सकते है नही शुभ तान वन्देमातरम् । ।
देश के ही अन्नजल से बन सका यह खून है । नाड़ियों में हो रहा संचार वन्देमातरम् । ।
स्वाधीनता के मंत्र का है सार वन्देमातरम् । हर रोम से हर बार हो उबार वन्देमातरम् ।।
घूमती तलवार हो सरपर मेरे परवा नही । दुश्मनो देखो मेरी ललकार वन्देमातरम् ।।
धार खूनी खच्चरों की बोथरी हो जायगी । जब करोड़ों की पड़े झंकार वन्देमातरम् ।।
टांग दो सूली पै मुझको खाल मेरी खींच लो । दम निकलते तक सुनो हुंकार वन्देमातरम् । ।
देश से हम को निकालो भेज दो यमलोक को । जीत ले संसार को गुंजार वन्देमातरम् ।।
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यथार्थ
- रीता कौशल
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आँखें बरबस भर आती हैं, जब मन भूत के गलियारों में विचरता है । सोच उलझ जाती है रिश्तों के ताने-बाने में, एक नासूर सा इस दिल में उतरता है ।
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लौटना | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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बरसों बाद लौटा हूँ अपने बचपन के स्कूल में जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से झाँक रहा है स्कूल-बैग उठाए एक जाना-पहचाना बच्चा
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उठो धरा के अमर सपूतो
- द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी
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उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो। जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
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अनसुनी करके
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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अनसुनी करके तेरी बात न दे जो कोई तेरा साथ तो तुही कसकर अपनी कमर अकेला बढ़ चल आगे रे-- अरे ओ पथिक अभागे रे ।
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कवि
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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कलम अपनी साध और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।
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भगत सिंह - गीत
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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फांसी का झूला झूल गया मर्दाना भगत सिंह । दुनियां को सबक दे गया मस्ताना भगत सिंह ।। फांसी का झूला......
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हम दीवानों की क्या हस्ती
- भगवतीचरण वर्मा
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हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।
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उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
- आलोक धन्वा
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उतने सूर्यास्त के उतने आसमान उनके उतने रंग लम्बी सड़कों पर शाम धीरे बहुत धीरे छा रही शाम होटलों के आसपास खिली हुई रोशनी लोगों की भीड़ दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे उनके कंधे, जानी-पहचानी आवाज़ें कभी लिखेंगे कवि इसी देश में इन्हें भी घटनाओं की तरह।
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विपदाओं से मुझे बचाओ, यह न प्रार्थना | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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हमारे पूर्वज | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है, गाते नहीं उनके हमीं गुण गा रहा संसार है । वे धर्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे, उनसे वही गम्भीर थे, वरवीर थे, ध्रुव धीर थे ।। १९।।
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मैं दिल्ली हूँ | चार
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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क्यों नाम पड़ा मेरा 'दिल्ली', यह तो कुछ याद न आता है । पर बचपन से ही दिल्ली, कहकर मझे पुकारा जाता है ॥
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छीन सकती है नहीं सरकार वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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छीन सकती है नहीं सरकार वन्देमातरम् । हम गरीबों के गले का हार वन्देमातरन् ॥१॥
सर चढ़ों के सर में चक्कर उस समय आता जरूर । कान मे पहुँची जहाँ झन्कार वन्देमातरम् ॥२॥
हम वही है जो कि होना चाहिए इस वक़्त पर । आज तो चिल्ला रहा संसार वन्देमातरम् ॥३॥
जेल मे चक्की घसीटें, भूख से ही मर रहा । उस समय भी बक रहा बेज़ार वन्देमातरम् ॥४॥
मौत के मुहँ पर खड़ा है, कह रहा जल्लाद से- भोंक दे सीने में वह तलवार वन्दे मातरम ॥५॥
डाक्टरों ने नब्ज देखी, सिर हिला कर कह दिया । हो गया इसको तो यह आज़ार वन्देमातरम् ॥६॥
ईद, होली, दसहरा, सुबरात से भी सौगुना । है हमारा लाड़ला त्योहार वन्देमातरम् ॥७॥
जालिमों का जुल्म भी काफूर सा उड़ जायेगा । फैसला होगा सरे दरबार- वन्देमातरम् ॥ ८ ॥
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एक ठहरी हुई उम्र | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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मैं था तब इक्कीस का और वह थी अठारह की
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उर्मिला
- राजेश्वर वशिष्ठ
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टिमटिमाते दियों से जगमगा रही है अयोध्या सरयू में हो रहा है दीप-दान संगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैं सारे नगरवासी हर तरफ जयघोष है ---- अयोध्या में लौट आए हैं राम! अंधेरे में डूबा है उर्मिला का कक्ष अंधेरा जो पिछले चौदह वर्षों से रच बस गया है उसकी आत्मा में जैसे मंदिर के गर्भ-गृह में जमता चला जाता है सुरमई धुँआ और धीमा होता जाता है प्रकाश! वह किसी मनस्विनी-सी उदास ताक रही हैं शून्य में सोचते हुए --- राम और सीता के साथ अवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मण पर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण है अपने भ्रातृधर्म का अनुशीलन उन्हें अब भी तो लगता होगा ---- हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैं धर्मध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट --- सोच कर सिसक उठती है उर्मिला चुपके से काजल के साथ बह जाती है नींद जो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी! अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सा गाल से होकर टपकते आँसुओं में बहने लगते हैं कितने ही बिम्ब!
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शहीद भगत सिंह
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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भारत के लिये तू हुआ बलिदान भगत सिंह । था तुझको मुल्को-कौम का अभिमान भगत सिंह ।।
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विकसित करो हमारा अंतर | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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विकसित करो हमारा अंतर अंतरतर हे !
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आदर्श | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए ? सत्कार्य्य-भूषण आर्य्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए । हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे । पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे ।। ३० ।।
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शब्द वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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फ़ैला जहाँ में शोर मित्रो! शब्द वन्देमातरम् । हिंद हो या मुसलमान सब कहते वन्देमातरम् ॥
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हर बार | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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हर बार अपनी तड़पती छाया को अकेला छोड़ कर लौट आता हूँ मैं जहाँ झूठ है , फ़रेब है , बेईमानी है , धोखा है -- हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर ले आता हूँ दर्द के इस पार जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने कुछ नए पल चुरा कर फिर से जीने की कोशिश में हर बार ढहता हूँ , बिखरता हूँ किंतु हर हत्या के बाद वहीं से जी उठता हूँ जहाँ से मारा गया था जहाँ से तोड़ा गया था वहीं से घास की नई पत्ती-सा फिर से उग आता हूँ शिकार किए जाने के बाद भी हर बार एक नई चिड़िया बन जाता हूँ एक नया आकाश नापने के लिए ...
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मैं दिल्ली हूँ | पाँच
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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प्राणों से हाथ पड़ा धोना, मेरे कितने ही लालों को । बच्चों के प्राणों को हरते, देखा शैतानी भालों को ।।
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आर्य-स्त्रियाँ
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था, गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा । था अत्रि-अनुसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में, दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में ।। ३९ ।।
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छटपटाहट भरे कुछ नोट्स | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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( एक ) आज चारो ओर की बेचैनी से बेपरवाह जो लम्बी ताने सो रहे हैं वे सुखी हैं जो छटपटा कर जाग रहे हैं वे दुखी हैं ( दो ) आज हमारी बनाई इमारतें कितनी ऊँची हो गई हैं लेकिन हमारा अपना क़द कितना घट गया है ( तीन ) आज विश्व एक ग्लोबीय गाँव बन गया है हमने स्पेस-शटल बुलेट और शताब्दी रेलगाड़ियाँ बना ली हैं एक जगह से दूसरी जगह की दूरी कितनी कम हो गई है लेकिन आदमी और आदमी के बीच की दूरी कितनी बढ़ गई है ( चार ) आज दीयों के उजाले कितने धुँधले हो गए हैं आज क़तार में खड़ा आख़िरी आदमी कितना अकेला है ( पाँच ) आज लम्बी-चौड़ी गाड़ियों में घूम रहे हैं छोटे लोग बड़े-बड़े बंगलों में रह रहे हैं लघु-मानव बौने लोग डालने लगे हैं लम्बी परछाइयाँ
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मक़सद
- राजगोपाल सिंह
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उनका मक़सद था आवाज़ को दबाना अग्नि को बुझाना सुगंध को क़ैद करना
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हमारी सभ्यता
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे, निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे । संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की, आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की ।। ४५ ।।
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कोई और | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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एक सुबह उठता हूँ और हर कोण से ख़ुद को पाता हूँ अजनबी आँखों में पाता हूँ एक अजीब परायापन अपनी मुस्कान लगती है न जाने किसकी बाल हैं कि पहचाने नहीं जाते अपनी हथेलियों में किसी और की रेखाएँ पाता हूँ मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसा भी होता है हम जी रहे होते हैं किसी और का जीवन हमारे भीतर कोई और जी रहा होता है
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तुम' से 'आप'
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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तुम भी जल थे हम भी जल थे इतने घुले-मिले थे कि एक-दूसरे से जलते न थे। न तुम खल थे न हम खल थे इतने खुले-खिले थे कि एक-दूसरे को खलते न थे। अचानक तुम हमसे जलने लगे तो हम तुम्हें खलने लगे। तुम जल से भाप हो गए, और 'तुम' से 'आप' हो गए।
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मन्त्र वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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शुद्ध सुन्दर अति मनोहर मन्त्र वन्देमातरम् । मृदुल सुखकर दुःसहारी शब्द वन्देमातरम् ॥
मन्त्र यह है, तन्त्र यह है, यन्त्र वन्देमातरम् । सिद्धिदायक, बुद्धिदायक एक वन्देमातरम् ।।
ओजमय बल कान्तिमय, सुखशान्ति वन्देमातरम् । मति प्रदायक अति सहायक मन्त्र वन्देमातरम् ।।
हर घड़ी हर बार हो हर ठाम वन्द्देमातरम् । हर दम हमेशा बोलिये प्रिय मन्त्र वन्देमातरम् ॥
हर काम मे हर बात में दिन रात वन्देमातरम् । जपिये निरन्तर शुद्ध मन से नित्य वन्देमातरम ॥
सोते समय, खाते समय, कल गान वन्देमातरम् । आठो पहर दिल मे उठे मृदु तान वन्देमानरम् ।।
मुख में, हृदय में रात दिन हो जाप्य वन्देमातरन् । नाड़ियों के रक्त का संचार वन्देमातरम्।।
तेग़ से सिर भी कटे, भूलो न वन्देमातरम् । मौत की घड़ियां गुँजादो शुद्ध वन्देमातरम् ॥
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जब दुख मेरे पास बैठा होता है | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जब दुख मेरे पास बैठा होता है मैं सब कुछ भूल जाता हूँ पता नहीं सूरज और चाँद कब आते हैं और कब ओझल हो जाते हैं बादल आते भी हैं या नहीं क्या मालूम हवा गुनगुना रही होती है या शोक-गीत गा रही होती है न जाने दिशाएँ सूखे बीज-सी बज रही होती हैं या चुप होती हैं विसर्जित कर अपना सारा शोर-शराबा जब दुख मेरे पास बैठा होता है मुझे अपनी परछाईं भी नज़र नहीं आती केवल एक सलेटी अहसास होता है शिराओंं में इस्पात के भर जाने का केवल एक पीली गंध होती है भीतर कुछ सड़ जाने की और पुतलियाँ भारी हो जाती हैं न जाने किन दृश्यों के बोझ से
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होली - मैथिलीशरण गुप्त
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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जो कुछ होनी थी, सब होली! धूल उड़ी या रंग उड़ा है, हाथ रही अब कोरी झोली। आँखों में सरसों फूली है, सजी टेसुओं की है टोली। पीली पड़ी अपत, भारत-भू, फिर भी नहीं तनिक तू डोली !
- मैथिलीशरण गुप्त
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संजय भारद्वाज की दो कविताएं
- संजय भारद्वाज
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जाता साल
(संवाद 2018 से)
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गुजरात : 2002 | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जला दिए गए मकान में मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ उस मकान में जो अब नहीं है जिसे दंगाइयों ने जला दिया था वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी उस मकान में अब कोई नहीं है दरअसल वह मकान भी अब नहीं है जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ यह सर्दियों का एक बिन चिड़ियों वाला दिन है जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है और शहर से संगीत नदारद है उस जला दिए गए मकान में एक टूटा हुआ आइना है मैं जिसके सामने खड़ा हूँ लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है आप समझ रहे हैं न ? जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में मैं लौटता हूँ बार-बार वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ मैं भी जला दिया गया था
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पांच कविताएं | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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विडम्बना कितनी रोशनी है फिर भी कितना अँधेरा है कितनी नदियाँ हैं फिर भी कितनी प्यास है कितनी अदालतें हैं फिर भी कितना अन्याय है कितने ईश्वर हैं फिर भी कितना अधर्म है कितनी आज़ादी है फिर भी कितने खूँटों से बँधे हैं हम
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खेलो रंग अबीर उडावो - होली कविता
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो । पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ । न अपना रग गँवाओ ।
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ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः
- राजेश्वर वशिष्ठ
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हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थीं चर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों की राम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थी चरक संहिता और लघु पाराशरी हम उन ग्रंथों को सम्भालने में ही लगे रहते थे! घर में अक्सर खाली रहता था अनाज का भंडार पिता की जेबों में शायद ही कभी दिखते थे हरे हरे नोट पर हमें भूखा नहीं रहना पड़ा कभी जब भी माँ शिकायत करती कुछ न होने की कोई न कोई निवासी मुहुर्त या लग्न पूछने के बहाने दे ही जाता सेर भर अनाज, गुड़ और सवा रुपया और पिता जी उन रुपयों को संभाल कर रख देते मंदिर के लाल कपड़े के नीचे, लक्ष्मी के चरणों में!
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कर्मवीर
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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देख कर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले । आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं । जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए । व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
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आज का आदमी | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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मैं ढाई हाथ का आदमी हूँ मेरा ढाई मील का ' ईगो ' है मेरा ढाई इंच का दिल है दिल पर ढाई मन का बोझ है
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एक बूँद
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी। सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
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अहसास | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जब से मेरी गली की कुतिया झबरी चल बसी थी गली का कुत्ता कालू सुस्त और उदास रहने लगा था कभी वह मुझे किसी दुखी दार्शनिक-सा लगता कभी किसी हताश भविष्यवेत्ता-सा कभी वह मुझे कोई उदास कहानीकार लगता कभी किसी पीड़ित संत-सा वह मुझे और न जाने क्या-क्या लगता कि एक दिन अचानक गली में आ गई एक और कुतिया गली के बच्चों ने जिसका नाम रख दिया चमेली मैंने पाया कि चमेली को देखते ही ख़ुशी से उछलते-कूदते हुए रातोंरात बदल गया हमारा कालू कितना आदमी-सा लगने लगा था वह जानवर भी अपनी प्रसन्नता में
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भलि भारत भूमि
- तुलसीदास | Tulsidas
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भलि भारत भूमि भले कुल जन्मु समाजु सरीरु भलो लहि कै। करषा तजि कै परुषा बरषा हिम मारुत धाम सदा सहि कै॥ जो भजै भगवानु सयान सोई तुलसी हठ चातकु ज्यों ज्यौं गहि कै। न तु और सबै बिषबीज बए हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
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बेटी-युग
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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सतयुग, त्रेता, द्वापर बीता, बीता कलयुग कब का, बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। बेटी-युग में खुशी-खुशी है, पर मेहनत के साथ बसी है। शुद्ध-कर्म निष्ठा का संगम, सबके मन में दिव्य हँसी है। नई सोच है, नई चेतना, बदला जीवन सबका, बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। इस युग में ना परदा बुरका, ना तलाक, ना गर्भ-परिक्षण। बेटा बेटी, सब जन्मेंगे, सबका होगा पूरा रक्षण। बेटी की किलकारी सुनने, लालायित मन सबका। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। बेटी भार नहीं इस युग में, बेटी है आधी आबादी। बेटा है कुल का दीपक, तो, बेटी है दो कुल की थाती। बेटी तो शक्ति-स्वरूपा है, दिव्य-रूप है रब का। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। चौके चूल्हे वाली बेटी, बेटी-युग में कहीं न होगी। चाँद सितारों से आगे जा, मंगल पर मंगलमय होगी। प्रगति-पंथ पर दौड़ रहा है, प्राणी हर मज़हब का। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
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क्या मैं परदेसी हूँ ?
- कमला प्रसाद मिश्र | Kamla Prasad Mishra
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धवल सिन्ध-तट पर मैं बैठा अपना मानस बहलाता फीजी में पैदा हो कर भी मैं परदेसी कहलाता
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गति का कुसूर
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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क्या होता है कार में पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती हैं तेज़ रफ़्तार में!
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झाँसी की रानी
- सुभद्रा कुमारी
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सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
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सुखी आदमी
- केदारनाथ अग्रवाल | Kedarnath Agarwal
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आज वह रोया यह सोचते हुए कि रोना कितना हास्यास्पद है वह रोया मौसम अच्छा था धूप खिली हुई सब ठीक-ठाक सब दुरुस्त बस खिड़की खोलते ही सलाखों से दिख गया ज़रा-सा आसमान और वह रोया फूटकर नहीं जैसे जानवर रोता है माँद में वह रोया।
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मुरझाया फूल | कविता
- सुभद्रा कुमारी
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यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत । स्वयं बिखरने वाली इसकी, पंखुड़ियाँ बिखराना मत ॥ जीवन की अन्तिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत ॥
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अकबर और तुलसीदास
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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अकबर और तुलसीदास, दोनों ही प्रकट हुए एक समय, एक देश, कहता है इतिहास;
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डॉ॰ सुधेश के मुक्तक
- डॉ सुधेश
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प्राण का पंछी सवेरे क्यों चहकता है शबनम बूँद से नया बिरवा लहकता है हड्डियों के पसीने से इसे सींचा है फूल मेरे चमन का ज़्यादा महकता है ।
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खौफ़
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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जाने-पहचाने पेड़ से फल के बजाय टपक पड़ता है बम काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज्यादा खतरनाक
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ठुकरा दो या प्यार करो | सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता
- सुभद्रा कुमारी
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देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं । सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं ॥ धूमधाम से साजबाज से मंदिर में वे आते हैं । मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं ॥ मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी । फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी ॥ धूप दीप नैवेद्य नहीं है झांकी का शृंगार नहीं । हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं ॥ मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी ? है स्वर में माधुर्य नहीं । मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं ॥ नहीं दान है, नहीं दक्षिणा ख़ाली हाथ चली आयी ॥ पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आयी ॥ पूजा और पुजापा प्रभुवर ! इसी पुजारिन को समझो । दान दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो ॥ मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ । जो कुछ है, बस यही पास है इसे चढ़ाने आयी हूँ ॥ चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो । यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो ॥
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जगमग जगमग
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर, नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग!
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स्वतंत्रता का दीपक
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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वंदना के इन स्वरों में
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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वंदना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो। वंदिनी माँ को न भूलो, राग में जब मत्त झूलो, अर्चना के रत्नकण में, एक कण मेरा मिला लो। जब हृदय का तार बोले, शृंखला के बंद खोले, हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।
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कवि की बरसगाँठ
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते झर रहे नयन के निर्झर, पर जीवन घट रीते के रीते
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मेरा नया बचपन
- सुभद्रा कुमारी
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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।।
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मेरा धन है स्वाधीन कलम
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम जिसने तलवार शिवा को दी रोशनी उधार दिवा को दी पतवार थमा दी लहरों को ख़ंजर की धार हवा को दी अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम रस-गंगा लहरा देती है मस्ती-ध्वज फहरा देती है चालीस करोड़ों की भोली किस्मत पर पहरा देती है संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम कोई जनता को क्या लूटे कोई दुखियों पर क्या टूटे कोई भी लाख प्रचार करे सच्चा बनकर झूठे-झूठे अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम बस मेरे पास हृदय-भर है यह भी जग को न्योछावर है लिखता हूँ तो मेरे आगे सारा ब्रह्मांड विषय-भर है रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम लिखता हूँ अपनी मरज़ी से बचता हूँ क़ैंची-दर्ज़ी से आदत न रही कुछ लिखने की निंदा-वंदन ख़ुदग़र्ज़ी से कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम तुझ-सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम |
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विजयादशमी
- सुभद्रा कुमारी
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विजये ! तूने तो देखा है, वह विजयी श्री राम सखी ! धर्म-भीरु सात्विक निश्छ्ल मन वह करुणा का धाम सखी !!
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बरस-बरस पर आती होली
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनूठा चुनरी इधर, उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा लाल-लाल बन जाते काले, गोरी सूरत पीली-नीली, मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली, नीले नभ पर बादल काले, हरियाली में सरसों पीली !
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कौरव कौन, कौन पांडव
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है।
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झुक नहीं सकते | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से, अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है।
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सोऽहम् | कविता
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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करके हम भी बी० ए० पास हैं अब जिलाधीश के दास । पाते हैं दो बार पचास बढ़ने की रखते हैं आस ॥१॥
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सुनीति | कविता
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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निज गौरव को जान आत्मआदर का करना निजता की की पहिचान, आत्मसंयम पर चलना ये ही तीनो उच्च शक्ति, वैभव दिलवाते, जीवन किन्तु न डाल शक्ति वैभव के खाते । (आ जाते ये सदा आप ही बिना बुलाए ।) चतुराई की परख यहाँ-परिणाम न गिनकर, जीवन को नि:शक चलाना सत्य धर्म पर, जो जीवन का मन्त्र उसी हर निर्भय चलना, उचित उचित है यही मान कर समुचित ही करना, यो ही परमानंद भले लोगों ने पाए ।।
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निज भाषा उन्नति अहै
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
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भारतेन्दु की मुकरियां
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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सब गुरुजन को बुरो बतावै । अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।। भीतर तत्व न झूठी तेजी । क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।।
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ज़िंदगी
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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लाचारी है, बीमारी है, ...फिर भी ज़िंदगी सभी को प्यारी है!
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जन्म-दिन
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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यूँ तो जन्म-दिन मैं यूँ भी नहीं मनाता पर इस बार... जन्म-दिन बहुत रुलाएगा जन्म-दिन पर 'माँ' बहुत याद आएगी चूँकि... इस बार... 'जन्म-दिन मुबारक' वाली चिरपरिचित आवाज नहीं सुन पाएगी... पर...जन्म-दिन के आस-पास या शायद उसी रात... वो ज़रूर सपने में आएगी... फिर... 'जन्म-दिन मुबारिक' कह जाएगी इस बार मैं हँसता हुआ न बोल पाऊंगा... आँख खुल जाएगी... 'क्या हुआ?' बीवी पूछेगी और... उत्तर में मेरी आँख भर जाएगी। [16 जून 2013 को माँ छोड़ कर जो चल दी]
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रिश्ते
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कुछ खून से बने हुए कुछ आप हैं चुने हुए और कुछ... हमने बचाए हुए हैं टूटने-बिखरने को हैं.. बस यूं समझो.. दीवार पर टंगें कैलंडर की तरह, सजाए हुए हैं।
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मायने रखता है ज़िंदगी में
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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किसी का आना किसी का चले जाना मायने रखता है ज़िंदगी में।
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कुछ उलटी सीधी बातें
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या । बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या ॥1॥
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर।
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हिन्दी–दिवस नहीं, हिन्दी डे
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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हिन्दी दिवस पर एक नेता जी बतिया रहे थे, 'मेरी पब्लिक से ये रिक्वेस्ट है कि वे हिन्दी अपनाएं इसे नेशनवाइड पापुलर लेंगुएज बनाएं और हिन्दी को नेशनल लेंगुएज बनाने की अपनी डयूटी निभाएं।'
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आओ होली खेलें संग
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कही गुब्बारे सिर पर फूटे पिचकारी से रंग है छूटे हवा में उड़ते रंग कहीं पर घोट रहे सब भंग!
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झुकी कमान
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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आए प्रचंड रिपु, शब्द सुना उन्हीं का, भेजी सभी जगह एक झुकी कमान। ज्यों युद्ध चिह्न समझे सब लोग धाये, त्यों साथ थी कह रही यह व्योम वाणी॥ "सुना नहीं क्या रणशंखनाद ? चलो पके खेत किसान! छोड़ो। पक्षी उन्हें खांय, तुम्हें पड़ा क्या? भाले भिड़ाओ, अब खड्ग खोलो। हवा इन्हें साफ़ किया करैगी,- लो शस्त्र, हो लाल न देश-छाती॥"
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हिन्दी
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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अच्छी हिन्दी ! प्यारी हिन्दी ! हम तुझ पर बलिहारी ! हिन्दी !!
सुन्दर स्वच्छ सँवारी हिन्दी । सरल सुबोध सुधारी हिन्दी । हिन्दी की हितकारी हिन्दी । जीवन-ज्योति हमारी हिन्दी । अच्छी हिन्दी ! प्यारी हिन्दी ! हम तुझ पर बलिहारी हिन्दी !!
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तर्ज़ बदलिए
- कृष्णा सोबती
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गुमशुदा घोड़े पर सवार हमारी सरकारें नागरिकों की तानाशाही से लामबंदी क्यूं करती हैं और दौलतमंदों की सलामबंदी क्यूं करती हैं सरकारें क्यूं भूल जाती हैं कि हमारा राष्ट्र एक लोकतंत्र है और यहां का नागरिक गुलाम दास नहीं वो लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत महादेश का स्वाभिमानी नागरिक है सियासत की यह तर्ज़ बदलिए।
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गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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यहाँ हम रवीन्द्रनाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) की सुप्रसिद्ध रचना 'गीतांजलि'' को श्रृँखला के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं। 'गीतांजलि' गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) की सर्वाधिक प्रशंसित रचना है। 'गीतांजलि' पर उन्हें 1910 में नोबेल पुरस्कार भी मिला था। |
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दिन अँधेरा-मेघ झरते | रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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यहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना "मेघदूत' के आठवें पद का हिंदी भावानुवाद (अनुवादक केदारनाथ अग्रवाल) दे रहे हैं। देखने में आया है कि कुछ लोगो ने इसे केदारनाथ अग्रवाल की रचना के रूप में प्रकाशित किया है लेकिन केदारनाथ अग्रवाल जी ने स्वयं अपनी पुस्तक 'देश-देश की कविताएँ' के पृष्ठ 215 पर नीचे इस विषय में टिप्पणी दी है।
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चल तू अकेला! | रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला! तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला, जब सबके मुंह पे पाश.. ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश, हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय! तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर, मनका गाना गूंज तू अकेला! जब हर कोई वापस जाय.. ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय.. कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय...
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रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं - गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का संकलन। |
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नारी के उद्गार
- सुदर्शन | Sudershan
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'माँ' जय मुझको कहा पुरुष ने, तु्च्छ हो गये देव सभी । इतना आदर, इतनी महिमा, इतनी श्रद्धा कहाँ कमी? उमड़ा स्नेह-सिन्धु अन्तर में, डूब गयी आसक्ति अपार । देह, गेह, अपमान, क्लेश, छि:! विजयी मेरा शाश्वत प्यार ।।
'बहिन !' पुरुष ने मुझे पुकारा, कितनी ममता ! कितना नेह ! 'मेरा भैया' पुलकित अन्तर, एक प्राण हम, हों दो देह । कमलनयन अंगार उगलते हैं, यदि लक्षित हो अपमान । दीर्ध भुजाओं में भाई की है रक्षित मेरा सम्मान ।।
'बेटी' कहकर मुझे पुरुष ने दिया स्नेह, अन्तर-सर्वस्व । मेरा सुख, मेरी सुविधा की चिन्ता-उसके सब सुख ह्रस्व ।। अपने को भी विक्रय करके मुझे देख पायें निर्बाध । मेरे पूज्य पिताकी होती एकमात्र यह जीवन-साध ।।
'प्रिये !' पुरुष अर्धांग दे चुका, लेकर के हाथों में हाथ । यहीं नहीं-उस सर्वेश्वर के निकट हमारा शाश्वत साथ ।। तन-मन-जीवन एक हो गये, मेरा घर-उसका संसार । दोनों ही उत्सर्ग परस्पर, दोनों पर दोनों का मार ।।
'पण्या!' आज दस्यु कहता है ! पुरुष हो गया हाय पिशाच ! मैं अरक्षिता, दलिता, तप्ता, नंगा पाशवता का नाच !! धर्म और लज्जा लुटती है ! मैं अबला हूँ कातर, दीन ! पुत्र ! पिता ! भाई ! स्वामी ! सब तुम क्या इसने पौरुषहीन?
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वो था सुभाष, वो था सुभाष
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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वो भी तो ख़ुश रह सकता था महलों और चौबारों में। उसको लेकिन क्या लेना था, तख्तों-ताज-मीनारों से! वो था सुभाष, वो था सुभाष!
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बीज
- संजय भारद्वाज
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जलती सूखी जमीन ठूँठ-से खड़े पेड़ अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा करती पीली घास, लू के गर्म शरारे दरकती माटी की दरारें इन दरारों के बीच पड़ा वो बीज..., मैं निराश नहीं हूँ ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है। ये, जो अपने भीतर समाये है असीम संभावनाएँ- वृक्ष होने की छाया देने की बरसात देने की फल देने की और हाँ; फिर एक नया बीज देने की, मैं निराश नहीं हूँ ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है।
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विडम्बना
- संजय भारद्वाज
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ऐसा लबालब क्यों भर दिया तूने, बोलता हूँ तो चर्चा होती है, चुप रहता हूँ तो और भी अधिक चर्चा होती है!
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पुष्प की अभिलाषा | कविता
- माखनलाल चतुर्वेदी
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चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूँथा जाऊँ,
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मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
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दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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हो जाय न पथ में रात कहीं, मंज़िल भी तो है दूर नहीं - यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है! दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
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एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए, कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए, इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े, और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए! किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
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मरण काले
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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निराला के देहांत के पश्चात् उनके मृत शरीर का चित्र देखने पर हरिवंशराय बच्चन की लिखी कविता - मरा मैंने गरुड़ देखा, गगन का अभिमान, धराशायी,धूलि धूसर, म्लान! मरा मैंने सिंह देखा, दिग्दिगंत दहाड़ जिसकी गूँजती थी, एक झाड़ी में पड़ा चिर-मूक, दाढ़ी-दाढ़-चिपका थूक। मरा मैंने सर्प देखा, स्फूर्ति का प्रतिरूप लहरिल, पड़ा भू पर बना सीधी और निश्चल रेख। मरे मानव-सा कभी मैं दीन, हीन, मलीन, अस्तंगमितमहिमा, कहीं, कुछ भी नहीं पाया देख। क्या नहीं है मरण जीवन पर अवार प्रहार? - कुछ नहीं प्रतिकार। क्या नहीं है मरण जीवन का महा अपमान?- सहन में ही त्राण। क्या नहीं है मरण ऐसा शत्रु जिसके साथ, कितना ही सम कर, निबल निज को मान, सबको, सदा, करनी पड़ी उसकी शरण अंगीकार?- क्या इसी के लिए मैंने नित्य गाए गीत, अंतर में सँजोए प्रीति के अंगार, दी दुर्नीति को डटकर चुनौती, ग़लत जीती बाज़ियों से मैं बराबर हार ही करता गया स्वीकार, एक श्रद्धा के भरोसे न्याय, करुणा, प्रेम - सबके लिए निर्भर एक ही अज्ञात पर मैं रहा सहता बुद्धि व्यंग्य प्रहार? इस तरह रह अगर जीवन का जिया कुछ अर्थ, मरण में मैं मत लगूँ असमर्थ!
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साथी, घर-घर आज दिवाली!
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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साथी, घर-घर आज दिवाली!
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दो बजनिए | कविता
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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"हमारी तो कभी शादी ही न हुई, न कभी बारात सजी, न कभी दूल्हन आई, न घर पर बधाई बजी, हम तो इस जीवन में क्वांरे ही रह गए।"
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आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
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नव वर्ष
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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नव वर्ष हर्ष नव जीवन उत्कर्ष नव
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दीपक जलाना कब मना है
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों, को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
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बाकी बच गया अंडा | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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पाँच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गये चार चार पूत भारत माता के, चारों चतुर-प्रवीन देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गये तीन तीन पूत भारत माता के, लड़ने लग गए वो अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच बच गए दो दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया है एक एक पूत भारत माता का, कंधे पर है झंडा पुलिस पकड़ के जेल ले गई, बाक़ी बच गया अंडा
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लोगे मोल? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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लोगे मोल? लोगे मोल? यहाँ नहीं लज्जा का योग भीख माँगने का है रोग पेट बेचते हैं हम लोग लोगे मोल? लोगे मोल?
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तीनों बंदर बापू के | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बंदर बापू के सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बंदर बापू के ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बंदर बापू के लीला के गिरधारी निकले तीनों बंदर बापू के!
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कालिदास! सच-सच बतलाना ! | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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कालिदास! सच-सच बतलाना ! इंदुमती के मृत्यु शोक से अज रोया या तुम रोये थे ? कालिदास! सच-सच बतलाना ?
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बापू महान | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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बापू महान, बापू महान! ओ परम तपस्वी परम वीर ओ सुकृति शिरोमणि, ओ सुधीर कुर्बान हुए तुम, सुलभ हुआ सारी दुनिया को ज्ञान बापू महान, बापू महान!!
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तेरे दरबार में क्या चलता है ? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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तेरे दरबार में क्या चलता है ? मराठी-हिन्दी गुजराती-कन्नड़ ? ताता गोदरेजवाली पारसी सेठों की बोली ? उर्दू—गोआनीज़ ? अरबी-फारसी.... यहूदियों वाली वो क्या तो कहलाती है, सो, तू वो भी भली भाँति समझ लेती तेरे दरबार में क्या नहीं समझा जाता है ! मोरी मइया, नादान मैं तो क्या जानूँ हूँ ! सेठों के लहजे में कहूँ तो—‘‘भूल-चूक लेणी-देणी.....’’ तेरे खास पुजारी गलत-सलत ही सही संस्कृत भाषा वाली विशुद्ध ‘देववाणी’ चलाते होंगे.... मगर मैया तू तो अंग्रेजी-फ्रेंच-पुर्तगीज चाइनीज और जापानी सब कुछ समझ लेती ही है नेल्सन मंडेला के यहाँ से लोग-बाग आते ही रहते हैं.... अरे वाह ! देखो मनहर, अम्बा ने सिर हिला दिया ! जै हो अम्बे ! नौ बरस की लम्बी सजा दे दी.... चलो, ये भी ठीक रहा !! देख मनहर भइया मुस्करा रही है ना ! चल मनहर मइया ने सिर हिला दिया, देख रे ! अब तो बार-बार भागा आऊँगा मनहर !
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घिन तो नहीं आती है ? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पे दचके सटता है बदन से बदन- पसीने से लथपथ छूती है निगाहों को कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच-सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है?
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मंत्र
- नागार्जुन | Nagarjuna
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ॐ शब्द ही ब्रह्म है.. ॐ शब्द्, और शब्द, और शब्द, और शब्द ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें ॐ वक्तव्य, ॐ उदगार्, ॐ घोषणाएं ॐ भाषण... ॐ प्रवचन... ॐ हुंकार, ॐ फटकार्, ॐ शीत्कार ॐ फुसफुस, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार, ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे
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भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र के समृद्ध कृतित्व में से कुछ ऐसी कविताएं चयनित की गई हैं जो समकालीन समाज ओर विचारधारा का समग्र चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम होंगी। |
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एक आशीर्वाद | कविता
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें मुस्कुराऐं गाऐं। हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें उँगली जलायें। अपने पाँव पर खड़े हों। जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
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काश! मैं भगवान होता
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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काश! मैं भगवान होता तब न पैसे के लिए यों हाथ फैलाता भिखारी तब न लेकर कोर मुख से श्वान के खाता भिखारी तब न यों परिवीत चिथड़ों में शिशिर से कंपकंपाता तब न मानव दीनता औ' याचना पर थूक जाता तब न धन के गर्व में यों सूझती मस्ती किसी को तब ना अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न भाई भाइयों पर इस तरह खंजर उठाता तब न भाई भगनियों का खींचता परिधान होता काश! मैं भगवान होता।
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विष्णु प्रभाकर की कविताएं
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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कहानी, कथा, उपन्यास, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रूपक, फीचर, नाटक, एकांकी, समीक्षा, पत्राचार आदि गद्य की सभी संभव विधाओं के लिए प्रसिद्ध विष्णुजी ने कविताएं भी लिखी हैं।
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सुशांत सुप्रिय की कविताएं
- सुशांत सुप्रिय
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सुशांत सुप्रिय की कविताएं का संकलन। |
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सुशांत सुप्रिय की तीन कविताएं
- सुशांत सुप्रिय
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पड़ोसी
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भिक्षुक | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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वह आता -- दो टूक कलेजे के करता-- पछताता पथ पर आता।
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प्राप्ति | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिराएँ हुईं रक्त-वाह ले, मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका । |
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तोड़ती पत्थर | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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वसन्त आया
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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सखि, वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया। किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी- पिक-स्वर नभ सरसाया। लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर बही पवन बन्द मन्द मन्दतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया। आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अञ्चल पृथ्वी का लहराया।
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ख़ून की होली जो खेली
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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रँग गये जैसे पलाश; कुसुम किंशुक के, सुहाए, कोकनद के पाए प्राण, ख़ून की होली जो खेली ।
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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि तो क्या भजते होते तुमको ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक-कवि?
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ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविताएं
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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ओमप्रकाश वाल्मीकि उन शीर्ष साहित्यकारों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजन से साहित्य में सम्मान व स्थान पाया है। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। आपने कविता, कहानी, आ्त्मकथा व आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
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भारत माता
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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(राष्ट्रीय गीत)
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सपना
- स्वरांगी साने
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खुली आँखों से सपना देखती सपने को टूटता देखती खुद को अकेला देखती
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पीहर
- स्वरांगी साने
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कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।
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प्याज़
- स्वरांगी साने
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बहुत सारा प्याज़ काटने बैठ जाती थी माँ। कहती थी मसाला भूनना है।
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कछुआ
- स्वरांगी साने
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बचपन में कछुए को देखती तो सोचती थी क्या देखता होगा इस तरह हाथ-पैर बाहर निकाल कर खुले आकाश को या उस दौड़ को जिसमें जीता था कभी उसका पुरखा।
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प्रतीक्षा
- स्वरांगी साने
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बेटी आने वाली है यह सोच कर उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं और वो सुपर वुमन। पूरे मोहल्ले को खबर कर देती है कहती है- दिन ही कितने बचे हैं, कितने काम हैं
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कागज़
- स्वरांगी साने
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उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास कहने को बहुत कुछ था। उन कोरे नए कागज़ों के पास भीनी महक के अलावा कुछ न था। पीले पड़ चुके कागज़ों की स्याही भी धुँधला गई थी कोनों से होने लगे थे रेशा-रेशा पर कितने अनकहे अनुभवों-अनुभूतियों को लिये थे वे।
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बीस साल बाद
- सुदामा पांडेय धूमिल
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मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है : हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।
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फूल और काँटा | Phool Aur Kanta
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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हैं जनम लेते जगह में एक ही, एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी, एक ही सी चांदनी है डालता।।
मेह उन पर है बरसता एक-सा, एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं। पर सदा ही यह दिखाता है हमें, ढंग उनके एक-से होते नहीं।।
छेद कर कांटा किसी की उंगलियां, फाड़ देता है किसी का वर वसन। प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर, भौंरें का है बेध देता श्याम तन।।
फूल लेकर तितलियों को गोद में, भौंरें को अपना अनूठा रस पिला। निज सुगंधों औ निराले रंग से, है सदा देता कली जी की खिला।। |
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खूनी पर्चा
- वंशीधर शुक्ल
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अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा, जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा। तुम हो जालिम दगाबाज, मक्कार, सितमगर, अय्यारे, डाकू, चोर, गिरहकट, रहजन, जाहिल, कौमी गद्दारे, खूंगर तोते चश्म, हरामी, नाबकार और बदकारे, दोजख के कुत्ते खुदगर्जी, नीच जालिमों हत्यारे, अब तेरी फरेबबाजी से रंच न दहशत खाऊंगा, जब तक तुझको...।
तुम्हीं हिंद में बन सौदागर आए थे टुकड़े खाने, मेरी दौलत देख देख के, लगे दिलों में ललचाने, लगा फूट का पेड़ हिंद में अग्नी ईर्ष्या बरसाने, राजाओं के मंत्री फोड़े, लगे फौज को भड़काने, तेरी काली करतूतों का भंडा फोड़ कराऊंगा, जब तक तुझको...।
हमें फरेबो जाल सिखा कर, भाई भाई लड़वाया, सकल वस्तु पर कब्जा करके हमको ठेंगा दिखलाया, चर्सा भर ले भूमि, भूमि भारत का चर्सा खिंचवाया, बिन अपराध हमारे भाई को शूली पर चढ़वाया, एक एक बलिवेदी पर अब लाखों शीश चढ़ाऊंगा, जब तक तुझको....।
बंग-भंग कर, नन्द कुमार को किसने फांसी चढ़वाई, किसने मारा खुदी राम और झांसी की लक्ष्मीबाई, नाना जी की बेटी मैना किसने जिंदा जलवाई, किसने मारा टिकेन्द्र जीत सिंह, पद्मनी, दुर्गाबाई, अरे अधर्मी इन पापों का बदला अभी चखाऊंगा, जब तक तुझको....।
किसने श्री रणजीत सिंह के बच्चों को कटवाया था, शाह जफर के बेटों के सर काट उन्हें दिखलाया था, अजनाले के कुएं में किसने भोले भाई तुपाया था, अच्छन खां और शम्भु शुक्ल के सर रेती रेतवाया था, इन करतूतों के बदले लंदन पर बम बरसाऊंगा, जब तक तुझको....।
पेड़ इलाहाबाद चौक में अभी गवाही देते हैं, खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू पी लेते हैं, नवाबों के ढहे दुर्ग, जो मन मसोस रो देते हैं, गांव जलाये ये जितने लख आफताब रो लेते हैं, उबल पड़ा है खून आज एक दम शासन पलटाऊंगा, जब तक तुझको...।
अवध नवाबों के घर किसने रात में डाका डाला था, वाजिद अली शाह के घर का किसने तोड़ा ताला था, लोने सिंह रुहिया नरेश को किसने देश निकाला था, कुंवर सिंह बरबेनी माधव राना का घर घाला था, गाजी मौलाना के बदले तुझ पर गाज गिराऊंगा, जब तक तुझको...।
किसने बाजी राव पेशवा गायब कहां कराया था, बिन अपराध किसानों पर कस के गोले बरसाया था, किला ढहाया चहलारी का राज पाल कटवाया था, धुंध पंत तातिया हरी सिंह नलवा गर्द कराया था, इन नर सिंहों के बदले पर नर सिंह रूप प्रगटाऊंगा, जब तक तुझको...।
डाक्टरों से चिरंजन को जहर दिलाने वाला कौन ? पंजाब केसरी के सर ऊपर लट्ठ चलाने वाला कौन ? पितु के सम्मुख पुत्र रत्न की खाल खिंचाने वाला कौन ? थूक थूक कर जमीं के ऊपर हमें चटाने वाला कौन ? एक बूंद के बदले तेरा घट पर खून बहाऊंगा ? जब तक तुझको...।
किसने हर दयाल, सावरकर अमरीका में घेरवाया है, वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र से प्रिय भारत छोड़वाया है, रास बिहारी, मानवेन्द्र और महेन्द्र सिंह को बंधवाया है, अंडमान टापू में बंदी देशभक्त सब भेजवाया है, अरे क्रूर ढोंगी के बच्चे तेरा वंश मिटाऊंगा, जब तक तुझको....।
अमृतसर जलियान बाग का घाव भभकता सीने पर, देशभक्त बलिदानों का अनुराग धधकता सीने पर, गली नालियों का वह जिंदा रक्त उबलता सीने पर, आंखों देखा जुल्म नक्श है क्रोध उछलता सीने पर, दस हजार के बदले तेरे तीन करोड़ बहाऊंगा, जब तक तुझको....।
-वंशीधर शुक्ल (1904-1980) |
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ओ शासक नेहरु सावधान
- वंशीधर शुक्ल
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ओ शासक नेहरु सावधान, पलटो नौकरशाही विधान। अन्यथा पलट देगा तुमको, मजदूर, वीर योद्धा, किसान।
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ओ शासक नेहरु सावधान
- वंशीधर शुक्ल
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ओ शासक नेहरु सावधान, पलटो नौकरशाही विधान। अन्यथा पलट देगा तुमको, मजदूर, वीर योद्धा, किसान।
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उठो सोने वालों
- वंशीधर शुक्ल
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उठो सोने वालों सबेरा हुआ है। वतन के फ़क़ीरों का फेरा हुआ है॥
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कवि प्रदीप की कविताएं
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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कवि प्रदीप का जीवन-परिचय व कविताएं
कवि प्रदीप का जन्म 6 फरवरी 1915 को मध्यप्रदेश के छोटे से शहर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। आपका वास्तविक नाम रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी था। आपको बचपन से ही हिन्दी कविता लिखने में रूचि थी।
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साँप!
- अज्ञेय | Ajneya
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साँप!
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जो पुल बनाएँगें
- अज्ञेय | Ajneya
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जो पुल बनाएँगें वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएँगे सेनाएँ हो जाएगी पार मारे जाएँगे रावण जयी होंगें राम , जो निर्माता रहे इतिहास में बंदर कहलाएँगे
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योगफल
- अज्ञेय | Ajneya
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सुख मिला : उसे हम कह न सके। दुख हुआ : उसे हम सह न सके। संस्पर्श बृहत् का उतरा सुरसरि-सा : हम बह न सके । यों बीत गया सब : हम मरे नहीं, पर हाय कदाचित् जीवित भी हम रह न सके।
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लक्षण
- अज्ञेय | Ajneya
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आँसू से भरने पर आँखें और चमकने लगती हैं। सुरभित हो उठता समीर जब कलियाँ झरने लगती हैं।
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ
- अज्ञेय | Ajneya
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
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आओ फिर से दीया जलाएं | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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आओ फिर से दिया जलाएं भरी दूपहरी में अधियारा सूरज परछाई से हारा अंतरतम का नेह निचोड़े बुझी हुई बाती सुलगाएं आओ कि से दीया जलाएं।
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एक बरस बीत गया | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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एक बरस बीत गया झुलसाता जेठ मास शरद चाँदनी उदास सिसकी भरते सावन का अंतर्घट रीत गया एक बरस बीत गया
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यक्ष प्रश्न - अटल बिहारी वाजपेयी की कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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जो कल थे, वे आज नहीं हैं। जो आज हैं, वे कल नहीं होंगे। होने, न होने का क्रम, इसी तरह चलता रहेगा, हम हैं, हम रहेंगे, यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
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पंद्रह अगस्त की पुकार
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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पंद्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है।।
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कैदी कविराय की कुंडलिया
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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गूंजी हिन्दी विश्व में स्वप्न हुआ साकार, राष्ट्रसंघ के मंच से हिन्दी का जैकार। हिन्दी का जैकार हिन्द हिन्दी में बोला, देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज में डोला। कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी, भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।।
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गीत नहीं गाता हूँ | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ । गीत नही गाता हूँ ।
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ऊँचाई | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है।
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दूध में दरार पड़ गई | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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खून क्यों सफेद हो गया?
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कदम मिलाकर चलना होगा | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
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पहचान | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी ऊंचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है।
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ज़िन्दगी
- अभिषेक गुप्ता
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अधूरे ख़त अधूरा प्रेम अधूरे रिश्ते अधूरी कविता अधूरे ख्वाब अधूरा इंसान पूरी ज़िन्दगी
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डूब जाता हूँ मैं जिंदगी के
- अभिषेक गुप्ता
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डूब जाता हूँ मैं ज़िंदगी के उन तमाम अनुभावों में जब खोलता हूँ अपने जहन की एल्बम पन्ना दर पन्ना और जब झांकता हूँ उन यादों में
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विप्लव-गान | बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
- बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin
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कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये, एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये, प्राणों के लाले पड़ जायें त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाये, नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाये, बरसे आग, जलद जल जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये, पाप-पुण्य सद्-सद् भावों की धूल उड़ उठे दायें-बायें, नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें, कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!
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दिवाली के दिन | हास्य कविता
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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''तुम खील-बताशे ले आओ, हटरी, गुजरी, दीवट, दीपक। लक्ष्मी - गणेश लेते आना, झल्लीवाले के सर पर रख।
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खूनी हस्ताक्षर
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ? वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ?
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नेताजी का तुलादान
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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देखा पूरब में आज सुबह, एक नई रोशनी फूटी थी। एक नई किरन, ले नया संदेशा, अग्निबान-सी छूटी थी॥
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उसने मेरा हाथ देखा | कविता
- उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk
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उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया, "इतनी भाव प्रवीणता दुनियां में कैसे रहोगे! इसपर अधिकार पाओ, वरना लगातार दुख दोगे निरंतर दुख सहोगे!"
यह उधड़े मांस सा दमकता अहसास, मै जानता हूँ, मेरी कमज़ोरी है हल्की सी चोट इसे सिहरा देती है एक टीस है, जो अन्तरतम तक दौड़ती चली जाती है दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा देती है! पर यही अहसास मुझे ज़िन्दा रखे है, यही तो मेरी शहज़ोरी है! वरना मांस जब मर जाता है, जब खाल मोटी होकर ढाल बन जाती है, हल्का सा कचोका तो दूर, आदमी गहरे वार बेशर्मी से हँसकर सह जाता है, जब उसका हर आदर्श दुनिया के साथ चलने की शर्त में ढल जाता है जब सुख सुविधा और संपदा उसके पांव चूमते हैं वह मज़े से खाता-पीता और सोता है तब यही होता है: सिर्फ कि वह मर जाता है!
वह जानता नहीं, लेकिन अपने कंधों पर अपना शव आप ढोता है।
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मुक्तिबोध की कविताएं
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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यहाँ मुक्तिबोध के कुछ कवितांश प्रकाशित किए गए हैं। हमें विश्वास है पाठकों को रूचिकर व पठनीय लगेंगे।
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नानी वाली कथा-कहानी
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी। बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी। बेटी-युग में बेटा-बेटी, सभी पढ़ेंगे, सभी बढ़ेंगे। फौलादी ले नेक इरादे, खुद अपना इतिहास गढ़ेंगे। देश पढ़ेगा, देश बढ़ेगा, दौड़ेगी अब, तरुण जवानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। बेटा शिक्षित, आधी शिक्षा, दोनों शिक्षित पूरी शिक्षा। हमने सोचा,मनन करो तुम, सोचो समझो करो समीक्षा। सारा जग शिक्षामय करना,हमने सोचा मन में ठानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। अब कोई ना अनपढ़ होगा, सबके हाथों पुस्तक होगी। ज्ञान-गंग की पावन धारा, सबके आँगन तक पहुँचेगी। पुस्तक और कलम की शक्ति,जग जाहिर जानी पहचानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। बेटी-युग सम्मान-पर्व है, पुर्ण्य-पर्व है, ज्ञान-पर्व है। सब सबका सम्मान करे तो, जन-जन का उत्थान-पर्व है। सोने की चिड़िया तब बोले,बेटी-युग की हवा सुहानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी। बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी।
- आनन्द विश्वास |
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आया मधुऋतु का त्योहार
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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खेत-खेत में सरसों झूमे, सर-सर बहे बयार, मस्त पवन के संग-संग आया मधुऋतु का त्योहार।
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होली की रात | Jaishankar Prasad Holi Night Poetry
- जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad
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बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन? उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।
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आँसू के कन
- जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad
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वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन-कन सा गया बिखर ! जल शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा जैसे सरसिज दल पर ।
लालसा निराशा में दलमल वेदना और सुख में विह्वल यह क्या है रे मानव जीवन! कितना था रहा निखर।
मिलने चलते अब दो कन आकर्षण -मय चुम्बन बन दल की नस-नस में बह जाती लघु-मघु धारा सुन्दर।
हिलता-डुलता चंचल दल, ये सब कितने हैं रहे मचल कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते कब रूकती लीला निष्ठुर ।
तब क्यों रे, फिर यह सब क्यों यह रोष भरी लीला क्यों ? गिरने दे नयनों से उज्ज्वल आँसू के कन मनहर वसुधा के अंचल पर ।
- जयशंकर प्रसाद
[ हंस, जनवरी १९३३] |
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महाकवि रवीन्द्रनाथ के प्रति
- केदारनाथ अग्रवाल | Kedarnath Agarwal
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महाकवि रवीन्द्रनाथ के प्रति
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क्योंकि सपना है अभी भी
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
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उत्तर नहीं हूँ
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
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पूजा गीत
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके-सी टूटे जिस दिन अपने अन्तरतम के विश्वास सभी निकले झूठे ! उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्यभ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण ?
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आज भी खड़ी वो...
- सपना सिंह ( सोनश्री )
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निराला की कविता, 'तोड़ती पत्थर' को सपना सिंह (सोनश्री) आज के परिवेश में कुछ इस तरह से देखती हैं:
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छवि नहीं बनती
- सपना सिंह ( सोनश्री )
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निराला पर सपना सिंह (सोनश्री) की कविता
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परिंदे की बेज़ुबानी
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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बड़ी ग़मनाक दिल छूती परिंदे की कहानी है!
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कलम गहो हाथों में साथी
- हरिहर झा | Harihar Jha
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कलम गहो हाथों में साथी शस्त्र हजारों छोड़
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लिखना बाकी है
- हरिहर झा | Harihar Jha
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शब्दों के नर्तन से शापित अंतर्मन शिथिलाया लिखने को तो बहुत लिखा पर कुछ लिखना बाकी है
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मण्डी बनाया विश्व को
- हरिहर झा | Harihar Jha
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लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
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मदिरा ढलने पर | कविता
- हरिहर झा | Harihar Jha
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दीवाली का सामान
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का हर इक तरफ को उजाला हुआ दिवाली का सभी के दिन में समां भा गया दिवाली का किसी के दिल को मजा खुश लगा दिवाली का अजब बहार का है दिन बना दिवाली का।
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उसे कुछ मिला, नहीं !
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कूड़े के ढेर से
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संवाद | कविता
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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"अब तो भाजपा की सरकार आ गई ।" मैंने उस गुमसुम रिक्शा वाले से संवाद स्थापित किया ।
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आज़ादी
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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भोग रहे हम आज आज़ादी, किसने हमें दिलाई थी! चूमे थे फाँसी के फंदे, किसने गोली खाई थी?
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बहुत वासनाओं पर मन से - गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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बहुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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