मुँह-अँधेरे बुहारी गई सड़क में जो चमक है– वह मैं हूँ !
कुशल हाथों से तराशे खिलौने देखकर पुलकित होते हैं बच्चे बच्चे के चेहरे पर जो पुलक है– वह मैं हूँ !
खेत की माटी में उगते अन्न की ख़ुशबू– मैं हूँ !
जिसे झाड़-पोंछकर भेज देते हैं वे उनके घरों में भूलकर अपने घरों के भूख से बिलबिलाते बच्चों का रुदन रुदन में जो भूख है– वह मैं हूँ !
प्रताड़ित-शोषित जनों के क्षत-विक्षत चेहरों पर घावों की तरह चिपके हैं सन्ताप भरे दिन उन चेहरों में शेष बची हैं जो उम्मीदें अभी — वह मैं हूँ !
पेड़ों में नदी का जल धूप-हवा में श्रमिक-शोणित गंध बाढ़ में बह गई झोंपड़ी का दर्द सूखे में दरकती धरती का बाँझपन वह मैं हूँ
सिर्फ मैं हूँ !!!
-ओमप्रकाश वाल्मीकि |