मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
दास्तान-ए-भूख (कथा-कहानी)     
Author:दिलीप कुमार

अक्टूबर का महीना , खेतों में धान की खड़ी फसल मंगरे को दिलासा देती थी, बस चंद दिनों की बात है, फसल कट जाए तो न सिर्फ घर में एक छमाही के लिये  रसद का जुगाड़ हो जाये बल्कि कुछ पुराने कर्ज चुकता हो जाएं तो नए कर्ज पाने की कोई उम्मीद बन सके। 

मंगरु की फांकाकशी वाली गृहस्थी उधार, मांगे-तांगे और दुआओं के भरोसे चल रही थी। मंगरु बीमार, कमजोर, बेकार और लाचार था। लेकिन फिर भी निवाले उसे ही जुटाने थे, क्योंकि अपनी सयानी होती बेटियों को अपनी डेढ़ बीघे की खेती और पांच बकरियों को इर्द-गिर्द ही रहने देता था, क्योंकि गरीब की फ़सल और गरीब की बेटी पर बहुतों की गिद्धदृष्टि लगी रहती है।

जीवन में आमदनी और कर्जों के भुगतान की  उधेड़बुन में वो धान की पकी फसल को निहारकर घर लौटा। 

हल्की बूंदा-बांदी से शुरू हुई बारिश की लगातार चार दिनों तक झड़ी नहीं रुकी। पहाड़ों पर हुई बारिश जब उतर कर नीचे आई तो तराई की नदियों और पहाड़ी नालों ने ऐसा उफान मारा कि रातोरात गांव के गांव और शहर के शहर डूब गए। बाढ़ का पानी इतना अप्रत्याशित तरीके से आया कि लोगों ने  बमुश्किल अपनी जान बचाई। कोई कहीं नहीं भाग सका, क्योंकि चारों तरफ पानी ही पानी था। गांवों में भी लोगों ने दूसरी मंजिल पर जाकर पनाह ली या स्कूलों वगैरह की छत पर पनाह ली। लेकिन जान बचाने के ये अवसर इनसानों को ही मिल सके, जानवरों को पनाह न मिल सकी जिससे मंगरु की सारी बकरियां इस दैवीय आपदा की भेंट चढ़ गयीं।

बाढ़ तो  एक हफ्ते  बाद उतर गयी लेकिन अपने पीछे  भयंकर बर्बादी छोड़ गयी। खेत में खड़ी फसल बर्बाद तो हुई घर में भी रखा अनाज सड़-गल गया। सरकारी गोदामों-दुकानों में भी रखा अनाज सड़-गल गया था।

हर तरफ भुखमरी का तांडव था और भूख हाहाकार कर रही थी। छह बेटियों का बाप मंगरु भी इस कठिन विपदा से भयाक्रांत था। तभी पता लगा कि सरकार ने ट्रक में भरकर अनाज भेजा है और हर परिवार को आटे की एक बोरी दी जानी है।

आटा बंटने को आया, बीमार-लाचार मंगरु को भी आटे की बोरी की जरूरत थी। वो किसी तरह गांव से दो मील दूर अपनी पत्नी कर्मावती के साथ पहुंचा।

आटे के ट्रक के पास लगी बेतहाशा भीड़ को देखकर कर्मावती ने  कहा-– “तुम इस भीड़ में गिर-पड़ जायेगा तो चोट लग जायेगी। यहीं रुको एक तरफ , मैं आटे की बोरी ले  लूंगी और ले भी आऊंगी।"

मंगरु ने सोचा इस भीड़ और भगदड़ में जनाना का जाना ठीक नहीं। लोग भूख से वैसे ही वहशियाना हरकतें कर रहे हैं , कर्मावती को भेजना ठीक नहीं। वैसे भी मरद के रहते औरत का भीड़ में धक्के खाना उसकी मर्दाना गैरत के खिलाफ था।

उसने कर्मावती की बात को मानने से इंकार कर दिया और अंत में कर्मावती को इस बात के लिये राजी भी कर लिया कि भीड़ में घुस कर आटे की बोरी वही लेगा।

पति के आत्मसम्मान का लिहाज करके कर्मावती ने सहमति दे दी।
मंगरु ने कहा--“मैं आटा ले लूंगा लेकिन लेकर चल नहीं पाऊंगा शायद। तू यहीं खड़ी रह भीड़ से हटकर। जब भीड़ छंट जाए तब आना, दोनों मिलकर कोई जुगाड़ करेंगे बोरी को घर ले जाने का।"

पति की हालत से आशंकित मगर असमंजस में कर्मावती ने सहमति में सिर हिलाया।

आटे की बोरियां कम थीं, और जरूरतमंदो की तादाद काफी ज्यादा। सो थोड़ी देर तक आटा बंटा। तमाम मशक्कत के बाद  मंगरु को एक आटे की बोरी मिल गयी। आटा मिलते ही उसकी आँखों में उम्मीद की चमक लौट आयी।

वो बोरी को पकड़कर एक किनारे खड़े होकर सुस्ताने लगा कि भीड़ छंट जाए तो, या तो वो कर्मावती को आवाज दे या फिर कर्मावती उसे देख ले और उसके पास चली आये।

भीड़ बढ़ती गयी, आटे की बोरियां घटती गयीं और अंत मे जब लोगों को लगा कि उन्हें आटे की बोरी नहीं मिलेगी तो लूट मच गयी। लूट के बाद भगदड़ मच गई। ये सब इतनी तेजी से हुआ कि किसी को कुछ समझने का मौका ही नहीं मिला।

थोड़ी देर बाद जब भूख के दावानल का आतिशी नाच समाप्त हुआ तब कर्मावती ने मंगरु को खोजना शुरू किया। 

मंगरु मिला तो खून खच्चर था। वो पेट के बल लेटा था। उसने पेट के नीचे आटे की बोरी को छिपा रखा था और सैंकड़ों पैर उसके ऊपर से गुज़र चुके थे।

कर्मावती ने उसे पलटा तो देखा कि उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। हालांकि आटे की बोरी सलामत थी, मंगरु भूख और दर्द की फानी दुनिया से जा चुका था। उसने चंद रोज के लिये भूख से लड़ने का उपाय तो कर लिया था मगर अपने पीछे भूख से जुड़ी लम्बी दास्तानें भी छोड़ गया था।

-दिलीप कुमार

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