शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
 
हृदय की आँखें (कथा-कहानी)     
Author:हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

उस दिन दर्पण पर कुछ अधिक समय तक दृष्टि जमी रह गई। ऊपरी होंठों पर कुछ श्यामता का आभास हुआ । मुझे कुछ शर्म सी लगी। मैंने अपने मन में प्रश्न किया-- क्या में यौवनावस्था में प्रवेश कर रहा हूँ? फिर तो जब कभी मैं दर्पण के सम्मुख जाता, तो पहले मेरी दृष्टि उसी श्यामता पर जाती, जिसने पहले पहल मुझे यौवनागमन की मूक सूचना दी थी। समय बीतता गया। वह श्यामता और अधिक घनीभूत होती गई।

शारीरिक परिवर्तन के साथ मन में भी परिवर्तन होने लगे। उसमें अब नवीन उमंगों तथा नूतन कल्पनाओं ने स्थान करना आरंभ किया; पर यह एक स्थान पर रहने वाली वस्तुएँ नहीं हैं। उमंगें उभरना चाहती हैं, कल्पनाएँ उड़ना चाहती हैं; पर मैंने कोई निकास न बनाया था। कल्पनाएँ एक से एक बढ़कर सपने दिखलातीं। उमंगें कहतीं-- कोई भी स्वप्न में तुम्हें अनुभवगम्य करा सकती हूँ। मेरी दशा उस बालक के समान थी जो एक खिलौने की ऐसी दूकान पर खड़ा कर दिया जाए, जिसके सभी खिलौने उसे पसंद हों, और वह यही सोचता खड़ा रहे, कि कौन ले और कौन छोड़े। मैं अपने मन से कुछ निश्चय न कर सका।

पर दूसरों ने मेरी सहायता की। मेरी जन्म-कुंडलियाँ माँगी जानी लगीं। मैं समझ गया कि अब मेरा विवाह होगा। विवाह संबंधी सैकड़ों प्रश्न मेरे मन में उठने लगे। मुख्य प्रश्न यह था, कि कैसी स्त्री से मेरा विवाह होगा? इस प्रश्न के साथ ही मेरी कल्पनाओं को एक मार्ग मिल गया। वे अनेक प्रतिमाएँ खींच-खींचकर मेरे सामने रखने लगीं। उमंगें कहतीं-- जिस किसी को प्राप्त करने की तू इच्छा करेगा, तुझे मिल जाएगी। वाह रे नौजवान-दिल के हौसले! तेरे हाथ कितने लंबे हैं! उसकी उँगली उस प्रतिमा की ओर उठ गई जो सब से सुंदर थी।

मैं किस श्रेणी के समाज में था, कैसी परिस्थितियों में था, मेरी अभिलाषा पूर्ण होने में कितनी कठिनाई थी, और मैं किस तरह उन कठिनाइयों को हटाने का प्रयत्न कर रहा था--इन सब बातों के जानने के लिए, एक छोटी सी घटना का वर्णन करना पर्याप्त होगा।

एक दिन को बात है कि मेरे यहाँ मेरे एक संबंधी के घर की बूढ़ी औरत आई; लेकिन मैं उससे परिचित न था। मैं उसके सामने से हो कर निकला। माता जी बोलीं-- तुम तो कोई नाता रिश्ता पहचानते ही नहीं; यह बुआ दादी लगती हैं, प्रणाम करो। मैंने प्रणाम किया। बूढ़ी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। बोली-- बेटा तो बड़ा हुआ अब कोई ब्याह क्यों नहीं ठहरातीं। माता जी ने मेरी ओर देखा, उनकी आँखों से पुत्र-अभिमान टपक रहा था, जो प्रायः भारतीय नारियों में पाया जाता है और विशेषकर पुत्रों के विवाह अवसरों पर। मुसकराते हुए, बोलीं कि बुआ जी, विवाह के लिए तो दस आदमी रोज द्वार घेरे रहते है; पर यह ब्याह करने को खुद राजी नहीं होता। बूढ़ी आश्चर्य से बोल उठी-- अरे कोई अपने विवाह के विषय में भी बोलता है।

हमारे यहाँ तो विवाह इस तरह होते हैं, कि दूल्हे-दुलहिन की पहली भेंट सुहाग रात के दिन होती है। चाहे वे एक दूसरे को पसंद हों या न हों, उन्हें जीवन पर्यंत एक दूसरे को प्यार करने का स्वाँग भरना 'पड़ता है; पर मेरी अभिलाषाएँ ऊँची थीं। मैं हिंदू विवाह को अन्यायपूर्ण रीति समझता था। वह एक अटूट बंधन है, मृत्यु पर्यंत का संबंध है। मुसलमानों में तलाक की प्रथा है। ईसाइयों में विवाह-विच्छेद होते हैं; पर उन्हें स्वतंत्रता है कि वे अपनी भावी पत्नी को विवाह से पूर्व देख लें, बात-चीत कर लें, पसंद कर लें। उचित तो यह था कि हिंदू समाज इससे भी अधिक स्वतंत्रता भावी पति-पत्नी को एक दूसरे से संतुष्ट होने को देता; परंतु यहाँ तो पत्नी का नाम तक पूछना बेशरमी और बेहयाई समझी जाती है। मैं एक ही तीर चला सकता था। इसे ही मुझे अपने आदर्श तक पहुँचाना था। मैं भाग्य का आश्रय लेकर किसी अज्ञात दिशा में इस तीर को नहीं छोड़ना चाहता था। एक बार संभवतः मैं अपने लक्ष्य को देख कर भी इसे छोड़ने में हिचकता, फिर जब लक्ष्य की गंध भी न मिलती हो उस समय तीर चलाने की इच्छा करना भी असंभव था; पर मैं इतना मूर्ख न था जो ऐसी प्रतिज्ञा कर बैठता कि जब तक हिंदू समाज इतनी उदारता न प्राप्त कर लेगा तब तक मैं अविवाहित रहूँगा। तब तो मुझे भीष्म पितामह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाना पड़ता। मैं विवाह करना चाहता था। मैं अपनी आदर्श-प्रतिमा से कुछ हटने को भी तैयार था; क्योंकि मुझे मालूम था, कि आदर्श सदा आदर्श ही रहा करते हैं; पर यह मेरा पक्का इरादा था, कि मैं एक अत्यंत सुंदर स्त्री से ही अपना ब्याह करूँगा। प्राचीन प्रथा के अनुसार मैं अपनी भावी पत्नी को बिना देखे, बिना पसंद किये, विवाह करने को कदापि उद्यत न था। मैं इस युद्ध के लिए अपनी सारी शक्तियों को संपन्न करने लगा। विवाह करने से इनकार करने से ही एक प्रकार से युद्ध छिड़ गया। मैं अपने मित्रों से कहा करता था कि मेरी पत्नी एक आदर्श पत्नी होगी; पर अपने पाठकों को मैंने यही बतलाया है कि मैं एक सुंदर पत्नी चाहता था; लेकिन वे यह न समझें कि मैं एक इतने छिछले हृदय का आदमी हूँ। एक पत्नी का यदि यही आदर्श होता तो सचमुच बहुत छोटा आदर्श होता; पर बात ऐसी न थी। इस छोटी सी बात के पीछे मैंने एक बड़ी भारी फ़िलासफ़ी समझ ली थी। अवश्य ही वह एक नवयुवक की बुद्धि की उपज थी, और संभव है, बड़े-बड़े लोग उसमें त्रुटियाँ बताएँ; पर नवयुवकों के लिए वह आज भी सर्वथा सत्य प्रतीत होगी।

बह फ़िलासफ़ी थी कि बाह्य सौंदर्य एक अमूल्य वरदान है और वह परमेश्वर की ही कृपा से प्राप्त होता है। प्राचीन दार्शनिकों का मत था कि मनुष्य का बाह्य जितना ही सुंदर होता है, उसका अंतःकरण उतना ही कुरूप होता है। मेरा विचार था, कि शारीरिक सौंदर्य आत्मिक सौंदर्य की छाया है। जिसका मन निर्मल, निर्विकार और निष्कपट होता है, उसका शरीर भी दीप्तिमान, चित्ताकर्षक और मनोहर होता है। मेरी फ़िलासफ़ी यह भी कहती थी कि सुंदर मुखवाले का स्वभाव भी सभ्यता-पूर्ण और शिष्टाचार-मय होता है। वह व्यावहारिक जीवन में भी दक्ष होता है। निष्कर्ष यह कि मेरी फ़िलासफ़ी में बाह्य सौंदर्य ही प्रथम और अंतिम शब्द था। मैं स्वयं सुंदर था। मैं समझता था सुंदर स्त्री को ही मुझे पाने का अधिकार है।

लेकिन मुझमें कुछ कमज़ोरी थी। मैं सामने से ताल ठोंककर नहीं लड़ता था। मैं केवल यह कहता जाता था कि मैं विवाह न करूँगा, मैं विवाह न करूँगा। मुझे मालूम था कि मेरे पिता जी को यह जानने की अभिलाषा होगी कि में क्यों विवाह नहीं करना चाहता। उनसे अपनी इच्छा कह सुनाने की मेरी हिम्मत न पड़ती थी। मुझसे पूछने में वे स्वयं संकोच करते थे। मुझे मालूम था कि वे किसी दूसरे से पुछवाएँगे कि मैं क्या चाहता हूँ। मैंने अपनी अभिलाषा प्रकट कर दी। बात उनके कानों तक पहुँच गई। मैं तो यह चाहता ही था। यह बात सुनकर पुराने दकियानूसी ख्याल के पिताजी क्या सोचते हैं, यह सभी जानते हैं। उन्हें मेरी बात बिल्कुल न भाई। एक सप्ताह तक न जाने किस सोच में पड़े रहे। संभवतः यह सोच रहे होगे, कि अपने विचार सीधे मुझपर प्रकट करें, या किसी और से कहलाएँ। अंततोगत्वा जब एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा था, तो वे चले आए और कहने लगे, "देखो, नवजवान आदमी हमेशा खूबसूरती ही को पसंद करता है, पर उसको मालूम नहीं है, कि ज़िंदगी सिर्फ़ औरत का मुँह देखने के लिए नहीं है। जिंदगी एक लड़ाई है, जो सिर्फ खूबसूरती के हथियार से नहीं लड़ी जा सकती। औरतों में और गुण-ढंग होने चाहिए, जिनके बग़ैर घर का काम-काज नहीं चल सकता। हमें तो घर-गृहस्थी लायक लड़की चाहिए- ख़ूबसूरत लड़की लेकर क्या नचाना है?"

उन्होंने जिस बात से चाहा था कि मैं सुंदर स्त्री मिलने की अभिलाषा छोड़ हूँ, उसी बात ने मुझे अपनी अभिलाषा में और भी दृढ़ बना दिया। मैं सोचने लगा-- यदि जीवन एक संग्राम क्षेत्र है तो क्या यह और भी आवश्यक नहीं कि मनुष्य जब यहाँ से लौटे तो थोड़ी देर के लिए एक ऐसी प्रतिमा के सामने खड़ा हो जाए जिसके क्षणिक स्पर्श से उसकी सारी थकावट दूर हो जाए। अथवा यह अधिक मुखप्रद होगा कि वह आकर एक ऐसी स्त्री के समक्ष खड़ा हो जिससे न उसे प्रेम हो और न जिसका दर्शन उसकी आँखों को प्रिय लगे। मुझे धुन थी कि सुंदर स्त्री ही का प्रेम भी सुंदर हो सकता है। कुरूपा का प्रेम भी कुरूप होगा। सौ बात की एक बात, मैं सुंदर था, मैं सुंदरी चाहता था। मुझे इस बात का पूरा विश्वास था, कि सुंदर स्त्री ही मुझे प्यार कर सकती है। कुरूपा स्त्री मुझे प्यार करने के स्थान पर मुझसे डाह करेगी। मेरा सौंदर्य उसे असह्य होगा। मैं अपने विश्वास पर दृढ़ रहा।

पिता जी को मेरा लोहा मानना पड़ा। अब कोई मेरी शादी के लिए आता, तो कहते--'साहब, लड़के को जब तक लड़की पसंद न हो, मैं शादी नहीं तय कर सकता। नई रोशनी के लड़के ठहरे मैं लाचार हूँ।' कइयों ने तो इसमें अपना अपमान समझा। कई इस बात पर राज़ी हुए कि दूल्हे के अलावा कोई और लड़की को देख ले; मगर मैं किसी दूसरी शर्त पर राज़ी न था। मुझे दूसरे पर विश्वास ही न था। ज़िंदगी भर की बात थी साहब इसमें तो अपनी आँखों तक को गड़ाकर देखने की आवश्यकता थी, मैं दूसरे पर कैसे भरोसा कर लेता?

होते-हवाते एक साहब आए, बड़े चलते-पुर्ज़े, बड़े बातूनी। बात-बात पर फ़ारसी के अशार पढ़-पढ़कर हवाला देते। शादी की बात छिड़ी। पिता जी ने शर्त कह सुनाई। फौरन् राज़ी हो गए, जैसे उन्हें पहले से ही मालूम था कि शर्त क्या होगी। सोचने तक को न रुके।

दूसरे दिन मैं उनके साथ लखनऊ चला। किसी को मेरे जाने की खबर न दी गई। मैंने सोचा कि इस काम में औरों से कहने की क्या आवश्यकता। संभव है मेरे पसंद लड़की न आई तो दूसरे लोग भी उससे शादी करने में हिचकेंगे। सवेरे गाड़ी पहुँची। ताँगे से हज़रतगंज उनके मकान पर पहुँचा। स्नान इत्यादि करके बैठा। बाबू साहब ने मुझसे कह दिया था, कि लड़की खाना परोसने आएगी। मैं खाना खाते वक्त चश्मा नहीं लगाता--मेरी आँखें इतनी कमज़ोर नहीं हैं; पर आज मुझे सौंदर्य देखना था, अपने जीवन का चिर संगी पसंद करना था। मैंने चश्मे को साफ़ करके आँखों पर चढ़ा लिया, कहीं आँखें धोखा न दे जाएँ। मेरे जी में पल-पल कौतूहल बढ़ रहा था।

मैं बैठा था। बिजली-सी सामने आई, चमकी, और चली गई, और मैंने अनेक प्रकार के व्यंजन अपने सामने रखे देखे । मैं आश्चर्य में पड़ा ही था, कि पर्दा फिर खुला। इस बार मैंने उसे मुसकराते देखा। एक अजीब विजयिनी की सी मुसकान थी। उसने कुछ कहा अवश्य; लेकिन मैं तो उसका बोलना देखने लगा--सुनना भूल गया। शायद उसने कहा-- 'खाइए, पिता जी आते हैं।' खड़ाउओं की आवाज़ के साथ पर्दा खुला और बाबू साहब आ गए। मैंने खाना आरंभ किया। सोचता जाता था जिसका सोना खरा है, उसे क्या भय, जो चाहे परख ले। तभी तो इतनी जल्दी अपनी लड़की दिखाने को तैयार हो गए।…

जेहि पर जेहि कर सत्य सनेहू,
सो तेहि मिलत न कछु संदेहू !....

बाबू साहब ने पूछा--'कहिए साहब...?' इसका पूरा अर्थ यह था, कि कहिए साहब लड़की पसंद है? मेरे मुँह में एक कौर था। मैंने मुसकरा दिया। मैंने समझा, कि मैंने अपने मन का भाव व्यक्त कर दिया। वे भी समझ गए। मेरे साथ ही मेरे यहाँ आए और मेरा विवाह तय हो गया। तारीख बँध गई।

मैं अक्सर सोचता--वह सुंदर है, बड़ी सुंदर है। उसका मन सुंदर होगा, उसका स्वभाव सुंदर होगा, उसके विचार सुंदर होंगे, उसका प्रेम सुंदर होगा, उसके काम सुंदर होंगे, मैं ईश्वर को धन्यवाद देता, कि उसने मेरी एक विनय स्वीकार कर ली, मेरी एक इच्छा पूर्ण कर दी। जैसे-जैसे विवाह के दिन समीप आने लगे, वैसे-वैसे मेरी इच्छा इस सुंदरता को छूने की होने लगी। कभी मैं सोचता--यहाँ उसमें इतनी चंचलता न रहेगी। यहाँ वह धीर-पूर होकर चले-फिरेगी। चंचलता भी तो सौंदर्य का एक अंग है; पर इससे क्या, उड़ती तितली अच्छी लगती है, तो क्या बैठने पर उसके पर सुंदर नहीं लगते?

मेरा विवाह हो गया--वही पुराने रस्म-रिवाजों के अनुसार। वे मुझे एक भी पसंद न थे; पर मैं एकदम से उलट-पलट नहीं कर सकता था। एक बात कर डाली थी, सो भी चाहता था कि छिपी रहे; पर वह चारों ओर फैल गई। सबों से न जाने किसने बता दिया कि मैंने लड़की को देखकर विवाह किया है। विवाह संस्कार में मैं कुछ भी आनंद न ले रहा था। बस यह समझता था, कि इतने अड़ंगे मेरे और मेरी पत्नी के बीच मैं पड़े हैं--ये किसी तरह हटें, तो मैं उसके पास पहुँचूँ।

आखिरकार एक समय आया जब मुझे सूचना दी गई कि आज मेरी सुहाग रात होगी, मेरे हर्ष की सीमा न रही। जो बिजली एक दिन मेरे सामने से चमककर निकल गई थी उसे में आज बादल बनकर अपनी गोद में छिपा लूँगा ! समय आ गया, वही समय जिसकी प्रतीक्षा मैं बहुत दिनों से कर रहा था।

दरवाज़े पर भावजों ने काफ़ी तंग क्रिया। खैर, उनसे किसी तरह छुट्टी पाकर भीतर गया। वह एक डेढ़ हाथ का घूँघट निकाल कर बैठी थी। मेरा जी धक-धक कर रहा था। किस तरह बात-चीत शुरू की जाए! मुझे मालूम था, कि मुझे ही कुछ छेड़-छाड़ शुरू करनी होगी। नहीं तो ये श्रीमती जी यूँ ही रात भर मूर्तिवत बैठी रहेंगी। मेरे पास बात शुरू करने की एक सामग्री थी। मुझे मालूम नहीं कि अंगणित हिंदू पति-पत्ली किस प्रकार अपना प्रथम परिचय आरंभ करते हैं। मैंने पूछा, 'प्रिये, तुम्हें उस दिन की बात याद है, जब तुमने मेरे लिए खाना लाकर रक्खा था?”

मैंने समझा था कि अगर बोलेगी नहीं, तो कम से कम सिर तो हिला देगी, पर उसने कुछ भी न कहा, न किया। मैंने ज़रा घूँघट खोलने का प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कस कर थामे हुए थी।

मैंने कहा- अच्छा, मैं हार मान गया, अब तो ज़रा दर्शन दे दो।

फिर भी कोई उत्तर न मिला। मैंने धीमे से उसका एक हाथ कपड़ों में से निकालकर अपने हाथ पर ले लिया। अनेक आभूषणों से सारा हाथ ढका था। तिसपर भी कहीं-कहीं त्वचा दिखलाई पड़ती थी। उसका रंग साँवला था। मुझे आश्चर्य हुआ। अरे, इसका गोरा-गोरा सा हाथ सांवला कैसे हो गया! जो मैंने ऊपर आँखें उठाई, तो देखता क्या हूँ, कि वह अपने दूसरे हाथ को अपनी आँखों पर रखकर सिसक- सिसककर रो रही है। मैं घबराकर पूछने लगा- 'क्यों रोती हो? क्या बात है?' उसने कांपती हुई आवाज़ से कहा, 'मैं वह नहीं हूँ, जिसने आपको खाना परोसा था। मैंने आश्चर्य से कहा, 'हैं! 'हैं! क्या कह रही हो?' उसने सिसकते हुए कहा, 'मेरे पिता ने आपको धोखा दिया, एक दूसरे की सुंदर कन्या को दिखाकर मुझसे आपका विवाह कर दिया।'

इन शब्दों के पश्चात उसने अपना मुँह अपने आप खोल दियाः यह दिखलाने के लिए नहीं कि वह कैसी है, बरन यह देखने के लिए कि उनकी बात का मेरे ऊपर क्या असर हुआ? मुझे कितना क्रोध आया, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता; पर साथ ही इन बात का ध्यान आया, कि अब किया क्या जा सकता है? अटूट बंधन तो मेरे गले छल से, कपट से, किसी तरह पड़ ही गया। मैं उसके मुँह खोलते ही उनकी ओर देखने लगा, कि आखिर जो मेरे भाग्य में पड़ गई है वह कैसी है। उससे यह कितनी कम सुंदर थी, इसे बताना असंभव है। सुंदरता कोई आलू-बैगन तो है नहीं कि उसकी तौल करके बता दूँ, कि वह इतनी थी और यह इतनी। मन की हो तो इंदिरा और बे-मन की हो तो मंथरा। सुंदरता की तराजू में यही दो पलड़े हैं। केवल यही कह सकता हूँ, कि यह वैसी न थी। मेरे दिल को बड़ा भारी धक्का लगा। मैंने होंठों को दाँतो से दवातें हुए, कहा--'इतना छल! इतना कपट!! इतनी धोखेबाज़ी!!!' मैं कुछ देर तक चुप बैठा रहा। इतने में वह मुझसे बोली--'आप मुझसे क्रुद्ध हैं?' मैंने कहा, 'ज़रा भी नहीं।'

मैं अपने शब्दों में उतना ही सत्य हूँ जितना अपने भावों में, इस बात को प्रदर्शित करने के लिए मैंने उसका हाथ अपने हृदय से लगा लिया। इस बेचारी का क्या अपराध था! इसने मेरे साथ कोई छल नहीं किया था। मैं इतना पशु नहीं था, कि उस निरपराध बालिका के प्रति किसी प्रकार का भी मनोमालिन्य अपने मन में रखता। उसे दोषी ठहराने का विचार क्षणमात्र के लिए भी मेरे मन में न आया। वह ऐसे विनीत भावों से आँखों में आँसू भरे बैठी थी कि मुझे उसपर दया हो आई। मैंने उसका हाथ चूम लिया। उसने फिर पूछा--'क्या आप मेरे पिता पर क्रुद्ध है?' मैंने कहा--'अवश्य।' उसने फिर पूछा, 'तो अब आप क्या कीजिएगा?"

मैं कुछ कहनेवाला था पर रुका। मैं कोई ऐसा उत्तर न देना चाहता था जिससे उस बालिका का हृदय दुखे। मुझमें प्रत्युत्पन्नमति विपेश रूप से वर्तमान है। मेरे मुँह से निकल पड़ा--'जो तुम कहो।' वह बोली, 'शआप उनपर क्रुद्ध न हों, और न कुछ करें, न उनसे कुछ कहें। उनका अपमान मेरे महान दुःख का कारण होगा। मेरी माता बचपन में ही मर गई थीं। उनमें मेरा मातृ स्नेह भी संचित है। मेरी निर्बलता के कारण यह सब हुआ। मैं जानती थी कि आप से छल किया जा रहा है। मैं यह सोचकर प्रायः घबरा उठती थी कि कौन मुँह लेकर मैं आपके सामने आऊँगी। मुझे देखते ही किसी व्यक्ति की चिर-संचित आशाओं पर पानी पड़ जाएगा। मैं सच कहती हूँ, कई बार इस बात को सोचकर मैं बेहोश हो गई। एक दिन तो मैंने सोचा कि क्या ही अच्छा हो कि मैं विवाह में पूर्व ही मर जाऊँ। फाँसी तक लगाने को तैयार हुई, पर फिर यह सोचकर रुक गई कि मेरी मृत्यु से आप तो यही समझेंगे कि आपकी आदर्श प्रतिमा स्वर्ग प्रयाण कर गई। इसका आपके ऊपर कोई अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े, इसी कारण मैंने जीवित रहने का कष्ट उठाया है; लेकिन अभी एक बात ऐसी हो सकती है जिससे इस कपट का परिशोध हो सकता है।‘

मैंने चट पूछा, 'वह कौन सी बात है?' वह रुकती हुई आवाज़ से बोली, 'मुझे कहीं से विष ला दीजिए, मैं अपने मायके में जाकर खा लूँगी और आप अपना दूसरा ब्याह कर लीजिएगा; पर इस बार अधिक सचेत रहिए‌गा--संसार बड़ा ठग है।'

मेरा हृदय काँप उठा। मैं सोचने लगा--मैं किसी स्त्री के पास बैठा हूँ कि किसी देवी के। मेरा दृष्टि-बिंदु उसके कपोलों पर से हटकर उसके हृदय के अंदर चला गया। वहाँ मुझे एक सुकुमार और सुकोमल हृदय के दर्शन हुए, जिसमें सिवा आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान के कोई और भावना न थी। मैं सोचने लगा--इसका हृदय कितना विशाल है कि अपने विशुद्ध बलिदान से अपने पिता के मान और मेरे अरमान की रक्षा करना चाहती है। मुझे ज्ञात नहीं कि कितनी देर तक मै इन विचारों में पड़ा रहा। एकाएक जो फिर उसके मुख पर दृष्टि गई, तो जो मुख पहले असुंदर मालूम पड़ा था, उसपर ऐसी अनोखी आभा थी कि उसपर सैकड़ों सुंदरियों को निछावर करने का जी चाहता था।

मैं एकदम से चौंक पड़ा। अरे, मैं उसकी बात पर चुप रह गया। इस चुप का उसने क्या अर्थ समझा होगा? यही न, कि में उसके प्रस्तावानुसार उसे विष ला देने को तैयार हूँ; या इस विचार में पड़ गया कि किस प्रकार यह कार्य संपादन किया जाए। अरे, मैंने चुप होकर बड़ी ही नीचता प्रकट की। इस चुप का मतलब और क्या निकल सकता था। अल खामोशी नीम रज़ा। मैं अपने विचारों में लीन था कि वह बोल उठी--'मरते समय ईश्वर से यही एक विनय करूँगी कि आपको एक बड़ी सुंदर......।‘ मैं अब अपने को न रोक सका। बात काटकर बोल उठा, 'प्रिये! अब तो तुम्हीं मुझे सुंदर लगती हो।'

विवाह में हमारे यहाँ जल्द ही विदा की रस्म है। बुलावा आया। मैंने न भेजा, अब कभी न भेजूंगा। मैं अपनी ससुराल अब तक नहीं गया और न जाऊँगा। मेरे ससुर जी को अपने कपट-व्यवहार पर, इतनी शर्म लगी कि कभी मेरे यहाँ नहीं आए। उनका ख्याल है कि मेरे यहाँ उनकी कन्या को बड़ा कष्ट दिया जाता है। उनके किए हुए कपट-व्यवहार की कम-से-कम यही सज़ा सही।

पर पाठक कहेंगे कि यह अच्छा अपनी ससुराल का ज़िक्र छेड़कर चलते बने--कहाँ गई आपकी यह फ़िलासफ़ी जिसमें वाह्य सौंदर्य ही जीवन में प्रथम और अंतिम शब्द था? पर मैं तो अब भी कहता हूँ, कि मेरी फ़िलासफ़ी का एक-एक शब्द सत्य है और सदा रहेगा। उसमें कहाँ अंतर आया? सौंदर्य को देखने की आंखें भी दो प्रकार की होती है-एक चेहरे के ऊपर और एक हृदय के भीतर। उस फ़िलासफ़ी में अब सिर्फ इतना ही और जोड़ना चाहता हूँ कि कदाचित 'हृदय की आँखें ऊपरी आँखों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होती है।

-हरिवंशराय बच्चन
[हंस, जनवरी 1931]

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