मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
माँ | कविता (काव्य)     
Author:दिव्या माथुर

उसकी सस्ती धोती में लिपट
मैंने न जाने
कितने हसीन सपने देखे हैं
उसके खुरदरे हाथ मेरी शिकनें सँवार देते हैं
मेरे पड़ाव हैं
उसकी दमे से फूली साँसें
ठाँव हैं
कमज़ोर दो उसकी बाँहें उसकी झुर्रियों में छिपी हैं
मेरी खुशियाँ
और बिवाइयों में
मेरा भविष्य। 

-दिव्या माथुर
[साभार : हिन्दी समय]

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश