मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
देवता (कथा-कहानी)     
Author:डॉ॰ धनीराम प्रेम | ब्रिटेन

कजा ने जब से होश संभाला था, तभी से उसके कान में इन शब्दों की झँकार सुनाई दी थी कि ‘पति देवता है।’ उसकी बहिनों के विवाह हुए थे, तब उसकी माता ने उन्हें यही पाठ पढ़ाया था। उसकी सहेलियाँ जब ससुराल के लिए विदा हो रही थीं, तब भी उसने इन्हीं पवित्र वाक्यों को सुना था। वह समझने लगी थी कि 'पति देवता है।' यह एक महामन्त्र था और विवाह के सूत्र में बँधने वाली प्रत्येक बालिका के लिए उस मन्त्र की दीक्षा लेना और जीवन-पर्यन्त उसे जपते रहने की आवश्यकता थी। इस प्रकार के वातावरण में पलने वाली अन्य बालिकाएँ इस मन्त्र को सुनती थीं और फिर भूल जाती थीं। कुछ उसे सुन कर उस पर हँस देती थीं। इसलिए नहीं कि उनके मन में उपेक्षा या घृणा के भाव उत्पन्न हो जाते थे, बल्कि इसलिए कि वे उस मन्त्र को एक रूढ़ि समझती थीं; एक लकीर, जिसको पीटना वे प्रत्येक स्त्री के जीवन का कर्तव्य समझती थीं, कुछ के लिए इस मन्त्र का समझना कठिन था, उसी प्रकार जिस प्रकार एक अबोध ब्राह्मण के लिए गीता के श्लोक। परन्तु न समझने पर भी वह ब्राह्मण नित्य उनका जाप करता है, केवल इसीलिए कि उसे वह आवश्यक समझता है, इस लोक के लिए तथा परलोक के लिए उसी प्रकार ये बालिकाएँ भी बिना समझे अपने मूलमन्त्र का जाप करती थीं, केवल इसीलिए कि ऐसा करना इहलोक तथा परलोक के लिए आवश्यक बताया जाता था।

परन्तु कला इन बालिकाओं से कुछ भिन्न थी। वह इस प्रकार के प्रश्नों पर कुछ विचार किया करती थी। उसने देवताओं के विषय में सुना था। वह जानती थी कि हिन्दुओं के तैंतीस कोटि देवता हैं, यद्यपि उसने नाम कुछ का ही सुना था जिनके नाम उसने सुने थे, उनके विषय में कुछ और भी उसने सुना था। उसने अपनी बहिनों और कई सहेलियों के पतियों को भी देखा था। उसने कई बार इस प्रश्न पर विचार किया था कि इन पतियों और देवताओं में क्या समानता है। देवता लोग यश और कीर्ति का कोई काम कर चुके थे, परन्तु इन पतियों में से बहुत कम ऐसे हैं, जिन्होंने एक भी यश का काम किया हो। देवताओं की पूजा सभी करते थे, परन्तु पतियों की सेवा करना केवल उसकी स्त्री का ही कर्तव्य बताया जाता है। क्या विवाह करने से ही प्रत्येक पुरुष को स्त्री का देवता होने का अधिकार मिल जाता है?  फिर स्त्री को विवाह होने के बाद पुरुष की देवी होने का अधिकार क्यों नहीं मिलता?  देवताओं की स्त्रियाँ तो देवियाँ मानी जाती हैं, परन्तु इन नर-देवों की स्त्रियों को उस पद से क्यों वंचित रखा गया है? यह कुछ समझ में नहीं आता क्या केवल लिंग-भेद ही इन सबका कारण है? क्या पुरुष ही यह पद पाने का अधिकारी है, स्त्री नहीं?

नित्य इसी प्रकार के विचार कला के मन में आते वह उन पर विचार करती, परन्तु उसे इन बातों के सन्तोषजनक उत्तर न मिलते। एक दिन उसने अपनी माता से इस विषय पर वार्तालाप करने का साहस किया।

"माँ!” उसने सिटपिटाते हुए कहा।

माँ ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें कला से पूछ रही थीं कि उसे क्या पूछना था।

"पति देवता होता है न?”

"हाँ!"

"सबका पति?"

"सबका।"

"चाहे वह कैसा ही हो?"

"चाहे वह कैसा ही हो। जिसके साथ सात भाँवर पड़ गई, वह कैसा भी हो, स्त्री का वह सदा देवता है।"

"स्त्री उसकी देवी नहीं?"

"भला यह कैसे हो सकता है? स्त्री तो अपने पति के चरणों की दासी होती है।"

“पति का इतना ऊँचा दर्जा और स्त्री का इतना नीचा?"

“यह धर्मशास्त्र की आज्ञा है!"

"क्या यह बदल नहीं सकती?"

"कैसी बातें करती है? धर्म-कर्म की बातें भी बदला करती हैं? जो बदल जाए, वह धर्म कैसा? जो पुरखापंगत से चली आई है, उस मर्यादा का तो सदा पालन करना ही पड़ेगा। ख़बरदार, जो फिर ऐसी बातें ज़बान पर लाई। जो शास्त्रों के विरुद्ध बातें करते हैं, उन्हें नरक में भी स्थान नहीं मिलता!"

कला चुप हो गई। 'पति देवता है,’ यह धर्मशास्त्र की आज्ञा है। धर्मशास्त्र की बात अमिट है। उसे कोई बदल नहीं सकता। उसने फिर कभी इस प्रकार की जिज्ञासा नहीं की। वह समझ गई कि इस प्रचलित प्रथा का उसे पालन करना ही पड़ेगा।

(2)

कला के विवाह का दिन आया। उसके लिए जिस देवता की सृष्टि की जा रही थी, उसका उसे कुछ भी पता न था। जिन देवताओं की लोग पूजा करते हैं, उनके विषय में थोड़ा-बहुत पहले से ही अवश्य जानते हैं। कोई अपने देवता के किसी गुण पर रीझ कर उसकी पूजा करता है, कोई उसके द्वारा होने वाले उपकार की आशा से उसका भक्त बनता है। परन्तु कला को न तो अपने देवता के किसी गुण का पता था और न वह यही जानती थी कि उस देवता के द्वारा उसका क्या उपकार हो सकेगा। उसकी माता उसके हृदय में एक अनजाने और अनदेखे देवता के प्रति अधन्धविश्वास और अन्ध-श्रद्धा का भाव भर रही थी। वह उसे उसी मूलमन्त्र का जाप बता रही थी, जिसका उपदेश प्रत्येक नव-विवाहिता युवती को दिया जाता था। कक्षा के कान में वही शब्द गूँजने लगे— ‘पति देवता है, पति देवता है।’ वह जिस समय अपने सगे-सम्बन्धियों से विदा होकर अपने देवता के साथ जा रही थी, उस समय उसकी माता ने उसके कानों में फिर वही मूलमन्त्र फूँका--

“पति देवता है, बेटी! इस बात को सदा याद रखना।"

"चाहे वह कैसा ही हो?"

"कैसा ही हो!"

"चाहे वह दुराचारी हो, पर-स्त्री-गामी हो, शराबी हो?"

"देवता के दोष देखने का भक्त को अधिकार नहीं!"

"उसकी पूजा करना ही उसका धर्म है!"

“हाँ! वह सब कुछ देती है, पर किसी चीज़ की प्राप्ति की प्रत्याशा नहीं कर सकती। उसके पास जो कुछ है, देवता की पूजा के लिए है!”

"देवता को पूजा की जो सामग्री चाहिए, वही चढ़ाना उसका धर्म है?"

"वही!"

स्त्री के रूप में उसका क्या धर्म है, इसकी शिक्षा उसे मिल गई। उसने वह गाँठ बाँधी कुछ कहने-सुनने का कुछ तर्क करने का उसे अधिकार ही नहीं। वहाँ अन्ध-श्रद्धा से ही काम चलेगा। जिस जीवन को वह अपनाने जा रही थी, वहाँ तर्क और अविश्वास का काम नहीं। उनसे तो उस जीवन के ही नष्ट होने का डर था। उसका कर्तव्य माता के बताए हुए मार्ग पर आँखें बन्द करके चलना था अपना सर्वस्व अपना शरीर, अपनी आत्मा और यदि इनसे परे भी कुछ हो तो वह भी, देवता की इच्छानुसार चुपचाप उसके ऊपर चढ़ा देना ही उसका धर्म था। उसने उस कर्तव्य को पूरा करने की, उस धर्म का पालन करने की प्रतिज्ञा कर ली।

 

(3)

कला ससुराल पहुँची। उसका पति अधेड़ आयु का था, धनिक था। ऐसे विवाहों में अधेड़ आयु और धन, इन दोनों का गहरा सम्बन्ध होता है और आयु जितनी ही बढ़ती जाती है, विवाह के लिए उतना ही अधिक धन होना आवश्यक हो जाता है। लड़की के पिता जब वर के घर में धन का ढेर देखते हैं, तो वे वर की आयु का हिसाब भूल जाते हैं। साठ वर्ष की आयु फिर उनकी समझ में 40 की ही रह जाती है। लड़की का विवाह वास्तव में मनुष्य से नहीं, धन से होता है। इसी प्रकार का विवाह कला का था। उसके पति की आयु इतनी नहीं थी कि वह वृद्ध कहा जा सके, परन्तु कला के पिता ने उसके रुपए के लिए ही कला का विवाह उसके साथ किया था।

यह सब कुछ होते हुए भी कला अपनी माता के मन्त्र के अनुसार अपना जीवन बिताना चाहती थी। वह पति को वास्तव में देवता समझना चाहती थी और उसकी पूजा करना चाहती थी। पहले दो दिनों में ही उसे अपने पति के विषय में बहुत कुछ विदित हो गया था। वह देवता हो सकता था, क्योंकि देवता कोई भी हो सकता है। परन्तु वह एक आदर्श पति नहीं हो सकता था। एक नवविवाहिता पत्नी अपने पति में जिन आदर्शों की, जिन भावों की कल्पना करती है, उनमें से एक भी कला को अपने पति में नहीं दिखाई देता था। जिन गुणों पर रीझ कर स्त्री स्वयं ही, स्वेच्छा से पति को देवता समझ कर उसकी पूजा करने लगती है, उसके लिए जीवन स्वाहा करने को तैयार होती है, उन्हीं गुणों को कला भी अपने पति में देखना चाहती थी। यह उसके लिए स्वाभाविक था। परन्तु वे गुण उसके पति में नहीं थे। फिर भी कला ने उसकी पूजा करके उसे प्रसन्न रखने का संकल्प किया। उसके देवता में और मन्दिर के देवता में विशेष अन्तर नहीं था। यह देवता चलता-फिरता था, वह देवता पत्थर का था, अचल था। उस देवता की पूजा लोग श्रद्धा के कारण करते थे, इस देवता की पूजा श्रद्धा न होने पर भी केवल रूढ़ि के कारण करनी पड़ती थी।

विवाह करके ससुराल आए हुए कला को कई दिन हो गए थे। अभी तक उसे अपने पति से स्नेह की एक दृष्टि भी नहीं मिली थी, प्रेम का एक शब्द भी सुनाई नहीं पड़ा था। उस दिन संध्या को उसने स्वादिष्ट भोजन बनाया--वह भोजन प्रेम से बनाया गया था और सावधानी से भी। भोजन समाप्त करके काला पति की प्रतीक्षा कर रही थी। समय व्यतीत होने लगा, परन्तु पतिदेवता न आए। वह पहला दिन था, जब उन्हें आने में इतनी देर हुई। इधर-उधर का सोच-विचार करती हुई कला भोजन के पास ही चौके में बैठी रही। आठ बजे, नौ बजे, दस बजे। वह उसी प्रकार बैठी रही। आखिर अब तक न आने का कारण क्या हो सकता है? कभी वह व्याकुल होती, कभी सन्देह उत्पन्न होता, कभी स्वयं ही समाधान हो जाता। ग्यारह बजे और द्वार पर शब्द हुआ। उसने दौड़ कर द्वार खोला।

जो कुछ उसने देखा, उससे वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी रह गई। उसे अपने पति को अपने देवता को इस दशा में देखने की आशा नहीं थी। वह लड़खड़ा कर गिरता पड़ता चल रहा था। आँखें जलते हुए अंगार की तरह लाल हो रही थीं। जो कुछ कहना चाहता था, वह स्पष्ट नहीं कह सकता था। उसे अपना और पराया होश नहीं था। वह ख़ूब पीकर आया था।

कला के होश उड़ गए। द्वार बन्द करके बड़ी कठिनता से वह उसे भीतर लाई। पलंग पड़ा था, उस पर उसे बैठा दिया और ठंडा पानी मुँह पर डाल कर पंखा झलने लगी। वह झल्ला उठा।

"कुछ मत करो, यहाँ से चली जाओ!" वह चिल्ला कर कर्कश स्वर में बोला।

"आपका जी अच्छा है?" कला ने पूछा।

"तुमसे कह दिया, तुम मुझे यहीं छोड़ दो!"

"आपका जी ठीक हो जाए, तब चली जाऊँगी!”

"मैं जी ठीक होना नहीं चाहता। मैं सो जाऊँगा!"

"बिस्तर बिछा यूँ?"

"नहीं!"

“तो कुछ खाकर सोइए। खाना बना हुआ रखा है।”

"खाने को चूल्हे में डाल दो और ऊपर से तुम गिर पड़ो!"

कह कर देवता ने पलंग पर लम्बी तानी। कला ने भी भोजन न किया। बहुत देर तक वह आँसू बहाती हुई इस घटना पर विचार करती रही। यही वह व्यक्ति है, जिसे वह देवता समझने का उद्योग कर रही है। उसे अपने देवता से और अपने से घृणा होने लगी। परन्तु फिर उसे याद आया—“देवता के दोष देखने का भक्त को अधिकार नहीं।” उसने अपनी विवशता पर एक दीर्घ निश्वास ली और एक ओर पड़ रही।

 

(4)

प्रातःकाल हुआ। देवता का ख़ुमार उतर चुका था। कला ने नाश्ता तैयार किया और देवता के सामने रख दिया। कुछ देर तक दोनों चुप रहे। फिर कला ने साहस बटोर कर रात्रि का विषय छेड़ा।

“मुझे पता नहीं था कि आप शराब पीते हैं!” वह बोली।

"नहीं था? लेकिन अब तो पता लग गया!"

"हाँ! परन्तु..."

"बोलो, परन्तु क्या?"

"परन्तु यह ठीक नहीं। आप इसे पीना छोड़ दीजिए!"

"छोड़ दूँ? क्यों?"

"क्योंकि यह व्यसन अच्छा नहीं। जब तक मैं नहीं आई थी, तब तक आप चाहे जो कुछ करते थे, परन्तु अब... "

“अब कुछ अन्तर हो गया!”

"क्यों नहीं ? आपके जीवन के साथ अब मेरा जीवन भी तो बँध गया है।"

"तुम्हारा जीवन बँध गया है, परन्तु घर के भीतर के लिए ही; घर के बाहर के लिए नहीं। घर के बाहर मैं सब कुछ हूँ। जो चाहूँगा, सो करूँगा। तुम्हारे साथ मैंने विवाह इसलिए नहीं किया कि मैं अपने कामों में तुमसे सलाह लूँ। केवल इसलिए किया है कि तुम घर की रखवाली करो, उसे सँभालो। तुम जो कुछ चाहती हो वह घर में है जो चाहो, खाओ जो चाहो, पियो; जो चाहो, पहनो परन्तु घर के भीतर ही बाहर की चिन्ता छोड़ दो, मेरी चिन्ता छोड़ दो! अगर तुम्हें मेरी कोई बात अच्छी नहीं लगती, तो आँखें बन्द कर लो, परन्तु कुछ कहो मत!"

"कहूँ नहीं? सब कुछ देख कर भी अन्धी बनी रहूँ? आखिर हूँ तो मैं आपकी पत्नी!”

"तुम पत्नी हो, ठीक है। परन्तु मालूम है, मैं कौन हूँ?"

"पति !"

"पति कौन होता है?"

"देवता!""

"देवता से भी बढ़ कर भगवान। जानती हो देवता का क्या अधिकार है?"

"पूजा!"

"बस यही तुम्हारा कर्तव्य है! पूजा करो, बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे, बिना कुछ सोचे!"

कला चुप हो गई! वह करती भी क्या! जिस मूलमंत्र की उसे शिक्षा मिली थी, वह उसी की पुनरावृत्ति थी।

(5)

बात बढ़ती हो गई। कजा के पिता ने जिस धन के लिए कला को उसके देवता को सौंपा था, वह धन भी न रहा, और अपने सारे जीवन को जिस देवता के लिए कला ने मन्दिर बना डाला था, वह भी खाली हो गया। कला का देवता किसी दूसरी की पूजा पसन्द करता था। वह वहीं जाकर विराजमान हो गया। मानों कक्षा उसकी कोई है ही नहीं। उसे कला की पूजा पसन्द न थी। परन्तु वह कला को दर्शन तो दे देता। कला को उसके लिए भी भटकना पड़ता था। उसका पति उसका देवता! उसके लिए उसे सब कुछ करने का आदेश दिया गया था। उसी की पूजा, उसी की सेवा करना उसका धर्म था। वह धर्मं अमिट था, अखण्ड था, अपरिवर्तनीय था। कला उस धर्म से बद्ध थी, इसीलिए उस देवता से भी बद्ध थी, जो राक्षसी कृत्य कर रहा था; जिसे किसी मन्दिर में तो क्या, मन्दिर की किसी नाली में भी स्थान पाने का अधिकार न था।

एक दिन उसे देवता के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस दिन कला ने उसके सामने अपना हृदय खोल कर धर दिया।

"मैंने कौन सा अपराध किया है, जो आप मुझे इस प्रकार त्याग रहे हैं?  क्या मैंने देवता समझ कर सच्चे हृदय से लगन से, विशुद्ध संकल्प से आपकी पूजा नहीं की?” उसने पूछा ।

"की है, परन्तु!"

"परन्तु?"

"मेरा हृदय उस पूजा से सन्तुष्ट नहीं होता।"

"मेरी पूजा से सन्तुष्ट नहीं होता? एक कुलीन ललना, अपनी धर्मपत्नी की सच्ची पूजा से आपको सन्तोष नहीं होता?” – देवता ने कुछ उत्तर न दिया।

"और उस वारांगना की पूजा से सन्तोष होता है, आनन्द का आभास होता है?" उसने फिर पूछा।

"यह हृदय का सौदा है कला!"

"उस वारांगना की पूजा में क्या विशेषता है?"

"हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने की विशेषता है।”

"वह शायद इसलिए कि वह एक कुल-ललना नहीं है। क्योंकि वह एक ही वस्तु--रूप, यौवन, सतीत्व--सौदा की भाँति सबको बेचने को तैयार हो जाती है!"

"पूजा भी एक सौदा है। पूजा के लिए भी देवता को इच्छित पदार्थों की आवश्यकता है! जहाँ उसे वे मिलते हैं, वहीं की पूजा वह स्वीकार करता है!"

"पूजा भी एक सौदा है!" देवता के चले जाने पर कला इसी वाक्य पर विचार करती रही! सच्चे हृदय से की हुई पूजा का कोई मूल्य नहीं। पूजा के भाव का आदर नहीं दिखावटी चढ़ावे के पदार्थ ही सबको पसन्द हैं।

"अच्छा, देवता! तो मैं भी तुम्हारी पूजा के लिए उन्हीं पदार्थों को जुटाऊँगी, जिन्हें तुम पसन्द करते हो! धर्म की लकीर पीटूँगी। शास्त्रों की आज्ञा मानूँगी। अन्त तक देवता को प्रसन्न करने का प्रयत्न करूँगी। धर्म! देवता! पूजा! सौदा!”

वह चिल्ला-चिल्लाकर यह कहने लगी। उस समय उसके मुख पर हँसी थी और नेत्रों में आँसू।

 

(6)

जब तक देवता में वरदान देने की शक्ति रही, तब तक पुजारी ने मन से, तन से पूजा की। परन्तु जब धन-रूपी वरदान देने की शक्ति का नाश हो गया, तो वारांगना ने देवता को मन्दिर से बाहर निकाल कर फेंक दिया।

घूमते-घूमते देवता ने दूसरे मन्दिर का द्वार खट-खटाया। द्वार खुला। नीचा सिर किए देवता कुर्सी पर बैठ गया।

"शराब!"--एक छोटी सी प्याली सामने सरका कर युवती बोली।

देवता की निद्रा भंग हुई। उसने आँखें ऊपर उठा कर देखा! यह क्या? उसने आँखें मल कर फिर उधर देखा!

"कला!"--वह चिल्ला उठा!

"हाँ, मैं कला हूँ, देवता! नई पुजारिन के रूप में!"

"यह मैं क्या देख रहा हूँ?"

क्या यह रूप पसन्द नहीं है? तुम्हीं ने तो कहा था कि तुम्हें इस प्रकार की पूजा पसन्द है!"

"ओह भगवान! तुम यहाँ... एक...”

"… वेश्या!"

"नहीं, कला, यह न कहो! तुम मेरी स्त्री हो! मेरी स्त्री एक वेश्या!"

"क्या बिगड़ गया! जो अन्य वेश्याएँ हैं, वे भी तो किसी की स्त्रियाँ रही होंगी। तुम्हें तो पूजा का रूप चाहिए न! तुम रूप, वासना, कुलटापन, दिखावटी हाव-भाव के भूखे थे। वह तुम्हें अब मिल रहे हैं। अब तक अन्य वारांगना उन्हें दे रही थी, अब तुम्हारी स्त्री दे रही है।"

वह पास आ गई। देवता दोनों हाथों से सिर पकड़ कर सोचने लगा।

"सोच क्या रहे हो? शराब पियो! मैं तो बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में मेरी पूजा पसन्द न थी। लो, यहाँ इसे अपनाओ।"

"चुप रहो, कला! ओह, मैंने यह क्या कर दिया! मैं नहीं समझता था कि मेरा पाप इस प्रकार वृद्धि पाएगा। मैं नहीं जानता था कि मैं स्वयं ही अपनी स्त्री को वेश्या बना दूंगा। मैं यह कैसा अनर्थ कर बैठा!”

"अनर्थ कैसा? यह तो धर्मशास्त्र की आज्ञा है। प्राचीन प्रथा है। पति देवता होता है, स्त्री दासी। वह स्त्री का चाहे जो कुछ कर सकता है। स्त्री को तो पति को प्रसन्न रखने की सदा चेष्टा करनी चाहिए, चाहे उसे कुछ भी करना पड़े।"

"इसमें तुम विश्वास करती हो?"

"क्यों नहीं? मुझे जन्म से यही सिखाया गया है।"

"अब भी विश्वास करती हो?"

“हाँ।”

"सच कहती हो?"

"देवता के सामने झूठ नहीं बोलूँगी।"

"अब भी मुझे देवता समझती हो!"

"हाँ!"

"मेरे लिए जो चाहूँ कर सकोगी?"

"हाँ!"

"चाहे वह कैसा ही कठिन कार्य हो?"

"जो कुछ कर चुकी हूँ, इससे कठिन और क्या हो सकेगा?"

"मृत्यु?"

"नहीं!"

"तो मेरे साथ, मेरे लिए प्रसन्नता से मर सकोगी?"

"अवश्य!"

"शराब के दो प्याले भरो!”

कला ने दो प्याले भरे। पति ने एक पुड़िया दोनों में डाल दी।

"उठाओ इसे।"

दोनों ने प्याले उठा कर होठों से लगाए।

"साथ-साथ नरक को!" पति बोला।

"देवता के साथ कहीं भी।"

"जो कुछ इस जन्म में और इस समाज में न कर सके, वह अगले जन्म में और किसी अन्य समाज में करेंगे!"

दोनों ने प्याले खनकाए। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ कस कर पकड़ लिया। दोनों ने एक-दूसरे की ओर हँसते हुए देख कर विष के प्याले गले से नीचे उतार दिए।

-डॉ. धनीराम प्रेम

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