शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
 
हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया : डॉ॰ विवेकानंद शर्मा (विविध)     
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
नांदी के पास के एक गाँव में पैदा हुए डॉ॰ विवेकानंद शर्मा [1939 - 9 सितंबर 2006] फीज़ी में हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक रहे हैं। फीजी के पूर्व युवा तथा क्रीडा मंत्री, सांसद डॉ॰ विवेकानंद शर्मा का हिंदी के प्रति गहरा लगाव रहा है। फीजी में हिंदी के विकास के लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहे। बचपन से ही वे हिंदी सीखना चाहते थे और भारत जाना चाहते थे। फीजी के पूर्व प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी डॉ॰ विवेकानंद शर्मा के हाई स्कूल के सहपाठी रहे हैं। आपने फीज़ी में टीचर ट्रेनिंग की फिर अध्यापक हो गए और बाद में भारत चले गए और गोरखपुर महाविद्यालय में दाखिला ले लिया। उसके बाद देहली महाविद्यालय से बी॰ए॰ की। इसी दौरान भारत में कई लेखकों व कवियों के सर्पक में आए। फिर फीज़ी के भूतपूर्व राष्ट्रपति रातू मारा ने इन्हें प्रेरित किया कि फीजी लौटकर फीजी की सेवा करे। लगभग दो साल फीजी रहने के पश्चात पुनः भारत जाकर आपने पीएचडी की। वे कहते थे, 'हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया। फीजी में जो स्थान हिंदी को दिया गया, वो स्थान तो हिंदी को भारत में भी नहीं मिला।'

फीज़ी की वर्तमान दशा के बारे में आप क्या कहेंगे? 
भारत से हमारी अपेक्षाएं थी, हम सोचते थे कि भारत हमारे बारे में अन्तरराष्ट्रीय मंच पर आवाज उठाएगा। शायद भारत अपनी समस्याओं से जूझ रहा है। फिर वैसे भी हम भारत से इतने दूर हैं, इस स्थिति में शायद भारत बहुत कुछ नहीं कर सकता था। हम चाहते थे कि हमें ऐसा लगे कि भारत हमारे पीछे है पर ऐसा लगता नहीं है। हमारा यहाँ कौन संरक्षक है? पड़ोसी देशों के तो उच्चायुक्त ही वापिस बुला लिए गए हैं। भारत के उच्चायुक्त का यहाँ होना तो हमारे लिए फक्र की बात है लेकिन वे अकेले क्या कर पाएंगे। वो तो बेचारे खुद ऐसे संकट के समय हमारे साथ संकट झेल रहे हैं। आज जो ये मांग उठाई जा रही है कि फीजी फीजियन के लिए है, वो तो किसी हद तक ठीक है किन्तु भारतीयों के योगदान को तो पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है । हमने खून-पसीना एक करके इस देश को आबाद किया है जब भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड हमारे पूर्वजों को यहाँ लाए थे, तो उन्हें बहकाकर झूठे सपने दिखाकर यहाँ लाया गया था। फिर आज ये तीनों जिम्मेवार देश क्यों मुँह छुपाए घूम रहे हैं। क्यों नहीं भारत खुलकर सामने आता? क्या भारत आज शक्तिहीन हो गया? क्यों नहीं भारत कुछ कह और कर सकता? भारत कुछ कह या कर रहा है, हमें तो ऐसा कुछ फीज़ी में सुनने को नहीं मिल रहा है। 

हमारे दिल में भारत के लिए बहुत प्यार, बहुत श्रद्धा है। भारत का भी ये धर्म है, कर्तव्य है कि वो अपने बच्चों के लिए कुछ करे। 

विश्व समुदाय के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? 
ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड हमारे पूर्वजों को यहाँ लाने के जिम्मेदार हैं। ...और फीज़ी के भारतीयों की संख्या है ही कितनी? केवल तीन लाख । हमें ऑस्ट्रेलिया के किसी भी कोने में डाल दे - हम खा लेंगे, पी लेंगे, आराम से जी लेंगे और ऑस्ट्रेलिया की उन्नति करेंगे। 

...लेकिन फिर आप ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भी तो बनना चाहेंगे? 
ये बहुत अच्छा प्रश्न किया है आपने।  …लेकिन जब भारतीयों को यहाँ लाया गया तो हमें पूर्ण नागरिक अधिकार दिये गये थे। हमने फीजी की उन्नति में पूरा योगदान दिया। उसके बाद हमने इसी देश को अपना समझ लिया और भारत की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा। भारत तो हमारे लिए ननिहाल है। 

जिस ननिहाल को आपने कभी पीछे मुड़कर ही नहीं देखा वो अब आपके लिए क्या करे? आप क्यों भारत से अपेक्षाएं रखते हैं? 
कुछ क्षण सोचकर वे मुसकरा पड़ते हैं। फिर कहते हैं, 'ये भी बहुत अच्छा प्रश्न है आपका?' 'ननिहाल के प्रति मोह तो हर नाति के मन में होता है और मुसीबत पड़ने पर वो ननिहाल की ओर ही दौड़ता है, देखता है। भगवान कृष्ण आदि सब इसके साक्षी है। हम भारतीयों को हजारों मील दूर दुनिया के एक दूसरे कोने पर लाकर डाल दिया गया, उसके बाद नानी ने कितनी अपने नातियों का ख्याल रखा है। 

लेखक होने के नाते आपने क्या किया? क्या आपने नई पीढ़ी में स्वाभिमान जागृति करने के लिए कुछ किया? 
आपने तो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मेरा ये मानना है कि यदि हिंदी भाषा में हमारी पूरी आस्था नहीं होगी तब संस्कृति कहाँ रहेगी! ...और हम उसी के प्रचार में लगे हुए हैं।

-रोहित कुमार हैप्पी

[डॉ॰ विवेकानंद शर्मा का यह साक्षात्कार सन् 2000 में फीजी के तख्तापलट के दौरान लिया गया था]
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