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Author:शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi |
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हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?" तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।" खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।" पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ। अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं हमें व्यंग्य मत सुनाओ जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर कुर्सी को कैश करता रहा। व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा। व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा और झूठी गवही को पुलिस का संस्कार मानता रहा। व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ जो पचास रुपये फ़ीस के लेकर मलेरिया को टी.बी. बतलाता रहा और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा। व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा। व्यंग्य उस सास को सुनाओ जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए नारी को बाज़ार दिया। व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा और बकवास को बढ़ावा देने के लिए वंस मोर करता रहा। व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा और अपना उल्लू सीधा करने के लिए व्यंग्य को विकलांग करता रहा। और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो तीर नहीं बन सकता आज का व्यंग्यकार भले ही 'शैल चतुर्वेदी' हो जाए 'कबीर' नहीं बन सकता।"
-शैल चतुर्वेदी [बाज़ार का ये हाल है] |
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