उर्दू जबान ब्रजभाषा से निकली है। - मुहम्मद हुसैन 'आजाद'।
 
त्रिलोक सिंह ठकुरेला की मुकरियाँ (काव्य)     
Author:त्रिलोक सिंह ठकुरेला

जब भी देखूं, आतप हरता।
मेरे मन में सपने भरता।
जादूगर है, डाले फंदा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, चंदा।

लंबा कद है, चिकनी काया।
उसने सब पर रौब जमाया।
पहलवान भी पड़ता ठंडा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा।

उससे सटकर, मैं सुख पाती।
नई ताजगी मन में आती।
कभी न मिलती उससे झिड़की।
क्या सखि, साजन? ना सखि, खिड़की।

जैसे चाहे वह तन छूता।
उसको रोके, किसका बूता।
करता रहता अपनी मर्जी।
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्जी।

कभी किसी की धाक न माने।
जग की सारी बातें जाने।
उससे हारे सारे ट्यूटर।
क्या सखि, साजन? ना, कंप्यूटर।

यूँ तो हर दिन साथ निभाये।
जाड़े में कुछ ज्यादा भाये।
कभी कभी बन जाता चीटर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, हीटर।

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
 [ आनन्द मंजरी, 2019, राजस्थानी ग्रन्थागार, राजस्थान]

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश