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हुल्लड़ के दोहे (काव्य) |
Author: हुल्लड़ मुरादाबादी
बुरे वक्त का इसलिए, हरगिज बुरा न मान।
यही तो करवा गया, अपनों की पहचान॥
आंसू यादें वेदना अब बिल्कुल बेकार।
आगे बढ़े ने देह से, इस कलयुग का प्यार॥
बेची जब से आत्मा, आई धन की बाढ़।
बंगले में रहकर लगा, जीवन जेल तिहाड़॥
नारी तन के रूप का, जब भी खिला वसंत।
कवियों की औकात क्या, बच पाए ना संत॥
जहर मिला सुकरात को, और ईसा को क्रास।
तू मामूली दुखों से ही, क्यों हो गया उदास॥
- हुल्लड़ मुरादाबादी