शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
 
चिरसंचित प्रतिकार (कथा-कहानी)     
Author:डॉ. आरती ‘लोकेश’

“गिरिजा! आपके बच्चों की स्कूल फीस कितनी जाती है?” अपनी कम्पनी के नए नियुक्त मानव संसाधन अफसर जयंत समदर्शानी का यह प्रश्न मुझे अवाक् कर गया।

बचपन में पड़ोस में रहने वाली सुरजा काकी मेरी आजी से यही सवाल किया करती थीं। “बहन जी! आपकी गोली की फीस कितनी जाती है?”

वे ‘र’ को ‘ल’ कहा करती थीं। जाने कोई ज़बान की तकलीफ़ रही होगी। उनके अपने पोते को वे लवल पुकारती थीं। आज तक समझ नहीं पड़ा कि नाम ‘रवल’ था, ‘लवर’… या ‘रवर’। इधर मेरी आजी झल्ला जातीं यह बताते-बताते कि उनकी पोती ‘गोली’ नहीं ‘गौरी’ है। ‘नामों को मटियामेट करना इसकी खानदानी बीमारी है।’ काकी के जाने के बाद आजी गुस्से से फुँफकारतीं। फिर अगले ही क्षण काकी का संघर्षशील जीवन-वृत्त उन्हें द्रवित कर जाता और वे अपने विषबुझे शब्दों के असर को घटाते हुए बोलतीं- ‘बड़ी दुखिया है बेचारी। आदमी सिर पर पहले से ही नहीं है। दो-दो पोते जाते रहे। तीसरे को जन्म देते बहू चल बसी। बेटे की दूसरी शादी का भी कोई सुख नहीं। खुद ही पाल रही है पोते को।’

काकी से सुनकर हम सब ‘लवल’ को ‘लवल’ ही पुकारते थे। स्कूल में संभवत: उसका कुछ और सभ्य-सा नाम रहा होगा जिसकी हमें कोई जानकारी नहीं थी। मुहल्ले भर में और किसी को ही कहाँ पता था कि मेरा भी स्कूली नाम ‘गौरी’ नहीं ‘गिरिजा’ है। मुहल्ले का कोई बच्चा मेरे स्कूल में नहीं था। लवल मेरे ही दर्जे में था पर एक दूसरे स्कूल में। अंग्रेज़ी माध्यम होने के कारण मेरे स्कूल में फ़ीस अधिक थी।

“गिरिजा, अगर आप फ़ीस न बताना चाहो, कोई अपत्ति हो तो जाने दो।” जयंत का वाक्य कानों में पड़ा तो जैसे बोलता-बतियाता बचपन मुँह पर उँगली रखे चुप खड़ा हो गया।

“नहीं-नहीं जयंत, इसमें आपत्ति वाली क्या बात है?” मैंने शिष्टाचारवश कहा, हालाँकि निजी जानकारी औरों को देना मेरे उसूलों के खिलाफ़ था।

पंद्रह दिन पहले ही हमारी कंपनी के एच.आर. विभाग में आए जयंत से सीधा-सीधा अपना नाम सुनना भी मुझे कुछ अखरा था। मैं दस साल से कंपनी में सीनियर इंजीनियर थी। मुझे सब ‘गिरिजा मैम’ कहकर पुकारते थे। मेरे वरिष्ठ अधिकारी या आयु में बड़े कर्मचारी भी ‘गिरिजा जी’ कहकर ही संबोधित करते। प्रतिकार में मैंने भी जयंत कहकर ही संबोधित किया। मैं यह जता देना चाहती थी कि मैं किस ओहदे पर हूँ। कोट-पैंट-टाई में आकर्षण का पुतला बना, यह सोच रहा होगा कि इस तरह मुझ पर हावी हो जाएगा या घनिष्ठता बढ़ा लेगा तो इसका यह भ्रम तोड़ना ज़रूरी है।  

“नहीं, आप सोच में पड़ गईं मेरे प्रश्न पर तो मुझे लगा कि आपकी मुश्किल को खत्म कर दूँ।” कहते हुए जयंत ने सामने रखी अपनी मोटी-सी रिकॉर्ड फाइल खोल ली। वह सौम्यता का देवदूत बन जाना चाहता था। उसका यह दिखावा भी मुझे कुछ खास पसंद नहीं आया था। 

“ऐसी बात नहीं है जयंत जी! यहाँ दुबई में तो सब स्कूल महँगे ही हैं। अपने भारत वाली फ़ीस से कई गुना अधिक। समझ नहीं आ रहा था कि आप किस उद्देश्य से पूछ रहे हैं बस इसलिए उत्तर नहीं सूझ रहा था।” मैंने गोल-मोल जवाब दिया। मेरे संस्कारों ने इस बार मुझे रोक लिया था इस सरल-साधारण मनुष्य को अपने बड़ेपन के अहसास से दबाने की चेष्टा से। मेरे व्यवहार से उत्साहित जयंत ने भी अपनी फाइल बंद की और पुन: मुझसे मुखातिब हो गया।

“बात यह है कि जल्द ही फैमिली को भी बुला रहा हूँ। वीसा लगने की कार्यवाही शुरु कर दी है। बच्चों को किस स्कूल में दाखिला दिलाऊँ, तय नहीं कर पा रहा हूँ तो सोचा कि क्यों न गिरिजा की मदद ले ली जाए।” वह ऐसे बोला जैसे कोई बड़ी पहेली मुझसे सुझवा रहा हो... करोड़ों के ईनाम वाली।

जयंत का निहायत ही बेतकल्लुफ़पना मुझे सुहा नहीं रहा था। आखिर किस हक से वह मुझे मेरे प्रथम नाम से पुकारे जा रहा है। मिसेज़ सिरोहिया भी तो कह सकता था।   

“मेरी ही क्यों?” न चाहते हुए भी मेरे अंदर का प्रश्न फुदककर बाहर प्रकट हो गया। कुलबुलाहट मुझे बचपन से ही तंग किया करती है। मेरे पेट में बात नहीं पचती थी और दिमाग में संशय। दोनों बाहर उँडेल देती हूँ।

“इस क्यों का क्या मतलब है भई? तुम मुझे हमउम्र-सी लगीं। मेरे विचार से तुम्हारे बच्चे मेरे बच्चों की उम्र के होंगे।” कहकर सहमति को पुकारती एक प्रश्नसूचक दृष्टि उसने मेरे चेहरे पर स्थिर कर दी। फिर आगे जोड़ा, “बाकी मुझे स्टाफ़ में अपने इंडियन लोग भी कम ही दिखे।” 

हालाँकि मैं इस ‘तुम’ के सम्बोधन से भी नाखुश थी फिर भी ठठाकर हँस दी। हम भारतीय हर जगह भारतीयों को ही ढूँढा करते हैं। यह नोस्टैलजिया का ही एक प्रकार है। विदेश में भी आँखें तलाश करती रहेंगी भारतीय व्यंजन, परिधान, बोली, स्कूल, कॉलोनी आदि-आदि।

“उम्र के पचड़े में मत पड़िए जयंत जी! जैसे यहाँ एक दिरहम में इंडिया के बीस रुपए आते हैं, वैसे ही यहाँ उम्रों का हिसाब है।” मैं उसे उसके नए होने का किसी तरह अहसास करा देना चाहती थी। 

“मतलब?” वह मानो आश्चर्य से उछल पड़ा।

“मतलब-वतलब छोड़िए! मतलब की बात बताइए। आपके बच्चे किस-किस क्लास में है?”

“बेटा छठी में और बेटी पाँचवीं में ...” जयंत की उत्सुकता बढ़ गई थी, वह बहुत ध्यान से मुझे सुन रहा था।

“और आप रह कहाँ रहे हैं? दुबई या शारजाह?”

“शारजाह में” जयंत की सारी इंद्रियाँ मेरी मुखाकृतियों को पढ़ लेने को आतुर थीं। मैंने अपना मास्क ठोडी तक नीचे कर उसकी दुविधा को कम किया और कहा-

“तो जयंत जी! आप की समस्या खत्म समझिए। शारजाह में एन.डी.पी.एस. बहुत अच्छा स्कूल है। फ़ीस भी वाजिब है। ...” स्कूल के पाठ्यक्रम, गतिविधियाँ आदि की जो-जो जानकारी मैं दे सकती थी, सब एक साँस में दे डाली।

“आपके बच्चे भी इसी स्कूल में हैं गिरिजा!” वह इतनी जल्द समाधान पाकर खुश था।

उससे बात करते हुए मैं जितना सम्बोधन में ‘जी’ और क्रिया में ‘इए’ पर दबाव डालती थी वह उतना ही गिरिजा-गिरिजा पुकारकर मुझे जाने क्या जतावा देकर असहज करता जाता था। नया होने के बावजूद लेशमात्र भी संकोच न था उसमें! उसकी इस फ्रैंकनैस को मैं उच्छृंखलता ही कह सकती थी।

“नहीं, मेरे बच्चे दसवीं और आठवीं में है। वे दूसरे स्कूल में हैं।” कहते-कहते मैं अनमनी-सी हो उठी और बिना कुछ आगे सुने-कहे वहाँ से निकल गई। मेरी कोशिशें उसे अपने लायक तमीज़-तहज़ीब सिखाने में नाकामयाब रही थीं।

जयंत से बात करते हुए चाहे-अनचाहे बचपन दामन से सटा वहीं टिका रहा था। मैं एच.आर. दफ़्तर में मुल्किया रिन्यू करने के कागज़ जमा कर बाहर निकली तो बचपन मेरी लटों में अटककर पलकों के आगे-आगे चलने लगा। 

लवल की माँ के देहांत के बाद सुरजा काकी ही उसे पाल-पोस रही थीं। कुछ वर्षों में लवल के पिता दूसरी दुल्हन ले आए थे। हमारे समाज में विधवा होना पाप है पर दुहाजू या विधुर होने जैसा पुण्य नहीं है। दूसरा पति एक नहीं मिलता पर दूसरी पत्नी कई मिल जाती हैं।

नई दुल्हन वसुधा आंटी के नाम से जानी जाती थीं। वे पढ़ी-लिखी थीं। उन्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई का बहुत गुमान था, ऐसा मैंने बचपन में अपने घर में सुना था। वे जीवन बीमा कंपनी में काम करती थीं। लवल के साथ अत्याचार की एक-न-एक खबर रोज़ ही मिर्च-मसाले के साथ पत्तल पर परोसकर आती और पूरा मोहल्ला चटखारे ले-लेकर सुनता-सुनाता।

इन दिनों सुरजा काकी भी घर के बाहर कम दिखाई देतीं। बात उनके बारे में भी खूब उड़ाई जातीं कि तेज़तर्रार सुरजा की अक्ल भी अब ठिकाने आई होगी जब कामकाजी बहू ने सास को घर के कामों में झोंक दिया है। मुझे याद नहीं कि मैंने कभी काकी को वसुधा आंटी की बुराई करते सुना हो। हाँ, अब उनका और भी व्यस्त होना स्वाभाविक था, घर में पोती रोज़ी ने जन्म ले लिया था। मैं और मेरा बड़ा भाई मज़ाक बनाते, “लो जी! काकी के घर में ‘लोजी’ आई है।” 

हम बच्चे दोपहर में खेलते तो लवल को घर के बाहर सज़ा में खड़ा पाते। खेल में लड़ते-झगड़ते हुए हम बच्चे ठिठक जाते लवल के घर के आगे। तमाशा देखने में इतने मगन हो जाते कि हमारी गेंद विरोधी पार्टी के हाथ में चली गई है यह तक भूल जाते। हमने कई बार पूछा कि उसे किस जुर्म की सज़ा मिली है पर वह कभी न बताता। हमारे मुँहों से यह खबर सुनकर दादी-नानी पीढ़ी की स्त्रियाँ वसुधा आंटी को बुरा-भला कहतीं। कभी दही के लिए जामन माँगने आती हुई या हलवाई की दुकान तक जाती सुरजा काकी इन बुजुर्ग स्त्रियों के हत्थे चढ़ जातीं तो वे कुरेद-कुरेदकर काकी की आत्मा तक को खुरच डालतीं। मुझे खूब याद है कि सुरजा काकी कभी बतातीं कि दूध न पीने पर बहू ने लवल को घर से बाहर निकाला था या फिर नए पर्दों से खाने के हाथ पोंछने पर या कभी क्रॉकरी तोड़ने पर।

बुजुर्ग स्त्रियों की फिर से ‘हाय-हाय’ शुरू हो जाती कि ‘हाय रे! इन आजकल की जनानियों की पढ़ाई-लिखाई को आग लगे। बालक को बालक ही नहीं समझतीं। है तो आखिरकार सौतेली ही न। अपनी माँ होती तो छाती से लगाकर रखती। ऐसी ज़रा-ज़रा-सी बातों पर धूप में खड़ा कर देती क्या!’ हमें बहुत हैरानी होती कि ऐसी गलतियों पर पिटाई तो हमारे घरों में भी हुआ करती है फिर वसुधा आंटी का क्या यही दोष है कि वे लवल की सौतेली माँ है या यह कि उनकी दी हुई सज़ा सूरज की धूप-सी स्पष्ट दिखती है।

बाहर खड़े लवल को कभी कराहता-रोता नहीं पाया था। हम अपनी माँओं से पिट-कुट कर ही बाहर खेलने जाया करते थे और रोज़ ही खरोंचों और घावों में लिपटे शरीर को लिए घूमते थे। लवल के गाल पर थप्पड़ या शरीर पर चोट का निशान न होना इस बात का सबूत था कि उसके ऊपर कभी हाथ नहीं उठाया गया था।

चार साल की होते ही रोज़ी भी स्कूल जाने लगी। पिछले 5-6 सालों में वसुधा आंटी को पानी पी-पीकर कोसने वालों के मुँह पर अचानक ताले जड़ गए जब लवल और रोज़ी दोनों ही घर के बाहर ठंड में ठिठुरते सज़ा काटते हुए मिलते। घर के दरवाजे अंदर से बंद रहते। अब शापित निबंध; मात्र एक वाक्य ‘कैसी माँ है यह?’ तक सिमट गए थे।    

लवल की कहानी में अपना बचपन याद करते-करते मैं अपनी सीट पर आ बैठी। मैंने अपना ई-मेल का पिटारा खोला। दुबई क्रीक को आगे बढ़ाने के प्रपोज़ल को अगले सप्ताह प्रेजेंट करना था, उसका रिमाइन्डर आया पड़ा था। एक ट्रेनिंग के लिए इजरायल जाने के लिए डिटेल्स की भी मेल थीं। मैंने पहले प्रपोज़ल वाले पी.पी.टी. पर काम करना शुरू कर दिया। यह टेंडर हासिल करना कंस्ट्रक्शन कंपनी से ज़्यादा मेरी अपनी तरक्की के लिए आवश्यक था। मैंने पिछले छ: महीनों से अपना जी-जान इसमें लगाया हुआ था।

क्रीक के किनारे आर.टी.ए. की वाटर टैक्सी, प्राइवेट यॉट डॉकिंग स्टेशन आदि का नक्शा पहले ही से पारित था। आधुनिक सुविधाओं की योजना पर मैं अभी काम कर रही थी। में शॉवर क्लोज़ेट, वाकिंग ट्रैक और पार्क के निर्माण और झूलों का हिसाब जोड़ते-जोड़ते एक पुराना हिसाब अपनी बही लेकर मस्तिष्क की स्मृतियों में खुल गया।

जब से लवल अपनी बहन रोज़ी के साथ सज़ा काटने बाहर होता तो वह रोज़ी को चबूतरे पर बैठाकर खुद हमारे साथ खेलने आ जाता। रोज़ी चुपचाप बैठी अकेले ही किसी खिलौने या अपनी काँख में दबाई गुड़िया से खेलती रहती। बीच-बीच में वह आवाज़ लगाती ‘भैया’ तो लवल तुरंत दौड़कर जाता और उसकी परेशानी को हल कर वापस आकर खेल में शामिल हो जाता। उन दिनों ही हम बालकों को पता लगा कि सज़ा तो दरअसल रोज़ी को ही मिली है। लवल तो रोज़ी का पक्ष लेने और सहानुभूति दिखाने का आरोपी है।

दोनों भाई-बहन का अटूट प्रेम देख लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते। हम सगे भाई-बहन जोकि लड़ते-लड़ते एक-दूसरे के दाँत-आँख फोड़ते जानी दुश्मन बन जाते थे अब घर में लवल-रोज़ी के उदाहरणों के हंटर खा रहे होते थे। रोज़ के उलाहनों के तमाचे खाकर अंदर ही अंदर मैं लवल से चिढ़ने लगी थी।

पिट्ठू-फोड़ खेल में एक बार हमारी जबरदस्त भिड़ंत हो गई। मैं जीत की ओर थी और अगला दाँव खेलने ही जा रही थी कि लवल ने मुझे न जीतने देने के इरादे से कसकर मेरी बाँह पकड़ ली। मैं कंचों का टूर्नामेंट भी जीत के चुकी थी। मुझपर जीतने का भूत सवार था। मैंने बाँह छुड़ाने की बहुत कोशिश की किन्तु लवल की पकड़ बहुत मजबूत थी। मैंने आँव देखा न ताँव और उसके शरीर का जो हिस्सा मेरे मुँह के सामने आया, दम लगाकर काट खाया। लवल बिलबिला उठा। उसकी उलटे हाथ की बाजू लहूलुहान हो चुकी थी। मेरे मुँह से उसका खून टपक रहा था। मैं सिर से पैर तक घबरा गई। अपने मुँह में आए उसके माँस के टुकड़े को थूकते हुए अपने घर में भागकर छिप गई।

उस दिन पहली बार वसुधा आंटी हमारे घर मेरी शिकायत करने आईं। इससे पहले वे मुहल्ले में किसी के घर न गईं थीं। किसी शादी-ब्याह तक में नहीं। काकी ही सब जगह हाजिरी भर आती थीं। आजी के कहने पर मैंने बुझे मन से उनसे माफ़ी माँगी। वे बहुत गुर्राई थीं। लवल उनके साथ उनके पल्लू में दुबका हुआ मुझे मुँह चिढ़ा रहा था। दिल में तो आया कि इसका मुँह नोंच लूँ। फिर दोबारा खेलने-लड़ने; किसी का भी मौका न मिला। पिताजी का तबादला होने से हम दिल्ली चले आए और फिर तुराब नगर के उस मोहल्ले में कभी जाना नहीं हुआ।

किसी तरह अपनी स्मृतियों के प्रवाह पर मैंने काबू किया और शुक्रवार की छुट्टी का पूरा दिन लगाकर पॉवरपॉइंट तैयार किया। शनिवार को छुट्टी होने के बावजूद ऑफिस बुलाया गया था। घर से निकलते समय ई-मेल नोटिफिकेशन में ही मैंने पढ़ लिया कि मुझे अगले हफ़्ते इज़राइल भेजा जा रहा है। जयंत की मेल से मेरा क्रोध उफ़ान पर था।

शनिवार को हमारी किसी क्लाइंट से मीटिंग तो होती नहीं थी सो हम सब कैजुअल कपड़ों में ही ऑफिस आ जाते थे। मैं गुस्से में पैर पटकते हुए जयंत के कमरे में पहुँची। वह आधी बाजू की टी-शर्ट में बिलकुल पहचाना नहीं जा रहा था। उसकी बाजू पर किसी गहरी चोट का निशान साफ़ दिख रहा था। मेरी निगाह ने चोट से चेहरे की यात्रा तय की और स्मृतियों ने उस पर हुए ज़ुल्मों से ज़ख्म की।

“ल..व...ल....!” मेरे शब्द मारे गुस्से के जैसे मुँह में ही अटक गए। ऑफ़िस की पिछली सारी घटनाएँ कौंधने लगीं।

“गौरी!” वह चहका। उसने मुझे पहचानते हुए एक भरपूर मुसकान बिखेरी।

“अच्छा! तो तुमने मुझे पहचान लिया था और इस चोट का प्रतिकार तुमने मेरे कैरियर पर चोट करके लिया। छि: लवल! तुम इतना गिर सकते हो। तुमने मुझसे प्रेजेंटेशन छुड़वाकर किसी और को दे दिया और मुझे..., मुझे इज़राइल जाने वाली लिस्ट में डाल दिया। हाऊ डेयर यू? इस प्रेजेंटेशन पर मेरी तरक्की टिकी हुई थी और वह खिसकाकर तुमने ले लिया न अपनी इस बाँह का बदला!” मैं गुस्से से चिल्ला रही थी।

जयंत अपनी कुर्सी से उठा और मेरी बाँह कसकर पकड़ ली। मैं तमतमा उठी। इसकी इतनी हिम्मत? मैं आपे से बाहर हो गई। शायद उसे तमाचा जड़ देती अगर शोर सुनकर चपरासी न आ गया होता।

“गिरिजा जी! अगर बदला ही लेना होता तो कब का ले लिया होता। मैं तो पहली मुलाक़ात में ही आपको पहचान गया था। बहुत मौके थे मेरे पास। आपको शायद पता नहीं कि दुबई क्रीक वाले प्रोजेक्ट का टेंडर हम भर नहीं रहे हैं अब, वह कंपनी की सिस्टर कंसर्न को दे दिया गया है। आपने मेल भी शायद पूरी नहीं पढ़ी। आपको प्रमोशन देकर प्लांट मैनेजर की ट्रेनिंग के लिए वहाँ भेजा जा रहा है।” कहकर उसने मेरी बाँह झटक दी। 

मैं वहीं जड़ हो गई। जयंत तो प्रतिकार के आकार से बहुत बड़ा हो गया था, शायद मुझे अपने बचपन के चिरसंचित आघातों के बौनेपन से उबरने की जरूरत थी। 

-डॉ. आरती ‘लोकेश’
दुबई, यू.ए.ई.
Mobile: +971504270752
Email: arti.goel@hotmail.com
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*डॉ आरती ‘लोकेश' दो दशकों से दुबई में निवास करती हैं। तीन दशकों से शिक्षण कार्य करते हुए यू.ए.ई. के विद्यालय में वरिष्ठ मुख्याध्यापिका हैं। इनके 4 उपन्यास, 4 कविता-संग्रह, 2 कहानी-संग्रह, 1 यात्रा-संस्मरण, 1 शोध ग्रंथ, 1 कथेतर गद्य, 4 संपादित मिलाकर 17 पुस्तकें प्रकाशित व 2 अन्य प्रकाशनाधीन हैं। 

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