मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
लोमड़ी और सारस | रूसी लोक-कथा (कथा-कहानी)     
Author:भारत-दर्शन

एक बार एक लोमड़ी और एक सारस अच्छे मित्र बन गये। एक दिन लोमड़ी ने सारस को खाने पर बुलाने का निश्चय किया।

"मेरे प्यारे मित्र, तुम कल मेरे घर आओ, "लोमड़ी ने कहा, "मैं तुम्हें बहुत मज़ेदार खाना खिलाऊंगी।”

दूसरे दिन सारस दावत खाने के लिए गया। लोमड़ी ने सूजी का थोड़ा-सा दलिया बनाया और एक तश्तरी में डाल कर रख दिया। दलिया पेश करते हुए उसने अपने मेहमान से कहा--"लो, खाओ, मेरे दोस्त। मैंने खुद इसे तैयार किया है।"

सारस ने बार-बार उस तश्तरी में अपनी चोंच मारी, मगर वह थोड़ा-सा दलिया भी न खा सका और उतनी देर में लोमड़ी उस दलिये को चाटते-चाटते चट कर गयी। तब उसने कहा--"बुरा न मानना मेरे प्यारे मित्र पर मेरे पास तुम्हारे सामने पेश करने के लिए अब और कुछ नहीं है।"

सारस ने जवाब दिया--"इसके लिए भी तुम्हारा शुक्रिया। कल तुम मेरे यहाँ आना। दूसरे दिन लोमड़ी सारस के घर पहुंची। सारस ने खाने के लिए कुछ शोरबा बनाया एक तंग मुंह की सुराही में डाल कर पेश किया और लोमड़ी से कहा--"शुरू करो मेरी प्यारी बहन, मेरे पास तो बस, यही कुछ है।"

लोमड़ी ने एक तरफ़ से सुराही पर नज़र डाली और दूसरी तरफ़ से उसे घूरा। फिर चाटा और सूंघा। लोमड़ी किसी तरह भी उस में मुंह न डाल सकी, शोरबा न खा सकी। सुराही के मुंह की तुलना में उसकी थूथनी कहीं बड़ी थी।

उधर सारस बड़े मजे से खाता रहा यहाँ तक कि सुराही में कुछ भी बाक़ी न रहा।

"मुझे बहुत अफ़सोस है, मेरी प्यारी, मगर मेरे पास तुम्हारे सामने पेश करने के लिए और कुछ भी नहीं है।"

लोमड़ी को मन ही मन बहुत गुस्सा आया। उसने सोचा था कि वह इतना खायेगी इतना खायेगी कि हफ़्ते भर की छुट्टी हो जायेगी। मगर वह अपना सा मुंह ले कर लौट गयी। जैसे को तैसा मिला। इसके बाद लोमड़ी और सारस की दोस्ती खत्म हो गयी।

[रूसी लोक-कथा]

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