शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
 
जो कभी डाकू था (कथा-कहानी)     
Author:भानुप्रताप शुक्ल

उद्यान में जाते ही उनके पैर थम से गए। देखा, तो सामने पेड़ की शाखा पर पालने में पड़ा एक बालक किलकारियां मार रहा था। ऋषि आनन्दित हो उठे। उनके उन्मुक्त हास्य में हँसी नहीं, आत्म-विश्वास, चुनौती और अगाध शक्ति का स्फुरण था। क्षण भर सोचा और पहुंच गए उसके माँ-बाप के पास।

छोटी-सी कुटिया, टूटी-सी खाट, फटा-सा बिछौना एक कोने में लकड़ी का ढेर, दूसरे में टूटे-फूटे बर्तन, तीसरे में कुछ वन-फल, जली हुई रोटियां और चौथे में बैठा था स्वयं भील अपनी पत्नी के साथ।

"देखो! वह कौन?" आश्चर्य से भीलनी ने ऋषि की ओर संकेत किया। उसने उचक कर देखा-- एक तरुण तपस्वी जीवन-दर्शन की गुत्थियां सुलझाने में उलझा हुआ चला आ रहा था और क्षण-भर में ही वह द्वार पर आकर ठिठक गया था।

"कैसे आए आपके पूज्य चरण आज इस कुटिया में भगवन्?" भील ने आर्द्र वाणी में पूछा।

"तू बड़ा ही सौभाग्यशाली है। भगवान जितेन्द्र ने तुम पर अगाध कृपा की है। परन्तु क्या तुम मेरी एक मांग पूर्ण कर सकोगे?"

"अवश्य! इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि मैं आपकी सेवा में लग सकूं।"

“यदि पूरा न किया तो?" ऋषि ने संदिग्ध वाणी में कहा।

"तो यह जीवन व्यर्थ है दिया हुआ वचन हम वनवासी कभी तोड़ा नहीं करते। आप आज्ञा दें, सेवक तैयार है!"

"तैयार है!"

“निस्संदेह।"

"तो फिर...” ऋषि आगे न बोल सके।

"तो... कहिए महाराज! रुक क्यों गए।"

"मैं आज तुम्हारे हृदय का टुकड़ा, जीवन का वर्तमान और भविष्य मांगना चाहता हूँ। कहीं तुम्हारी आशाओं का उद्यान मेरी कठोर याचना के आघातों से तहस-नहस न हो जाए?"

“नहीं भगवन्! मेरे जीवन की क्यारी आपकी कृपा से लहलहा उठेगी, मेरा हृदय विशाल एवं भविष्य सुनहला हो निकलेगा। आप अपना कथन पूरा करें।"

"मुझे वह पालने पर झूलता हुआ तुम्हारा बालक चाहिए।" ऋषि का "तो" पूरा हुआ ।

भील को काठ मार गया। उसकी मेधा कुंठित हो गई। वातावरण नीरव हो उठा। वह खोया-खोया ऐसा दीखता था जैसे अपने भावी जीवन के पृष्ठ बड़ी शीघ्रता से पलट रहा हो और किसी भी पृष्ठ पर शांतिदायी विचार न मिल रहा हो। क्रियाशून्य सघन वृक्षों की ओर देखने लग गया और उसकी एकाग्रता भंग हुई तब, जब ऋषि का मौन टूटा-“क्या सोच रहे हो भील!"

"कुछ नहीं महाराज।"

"कुछ तो।"

"यही कि..." वह आगे न बोल पाया। ऋषि ने बीच में ही कहा “…कि असंभव है।"

भील तिलमिला उठा। मानों अनेकों बिच्छुओं ने एक साथ ही डंक मारा हो। बोला--'नहीं, कदापि नहीं यह असंभव कैसे? मैं अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकता।"

ऋषि ध्यानमग्न हो गए। क्षण भर बाद देखा, भील अपना बालक लिए सामने खड़ा था। गद्गद हो ऋषि ने उसे हृदय से लगा लिया और मुड़ गए आश्रम की ओर।

ऋषि बच्चे के साथ आश्रम पहुँचे। वहां का शांत वातावरण यद्यपि उसे भाया नहीं तो भी बड़ों की आज्ञा मान उसे मन लगाना ही पड़ा। एक दिन आश्रम से कहीं दूर जाते समय ऋषि ने बच्चे को बुलाकर कहा-- "मेरे आने तक तुम प्रसाद की चूहों से रक्षा करना। ये सारा प्रसाद जूठा कर देते हैं। परन्तु ध्यान रखना कहीं हिंसा न हो जाए।"

"जो आज्ञा" कहकर बालक ने प्रणाम किया। ऋषि आश्रम से बाहर हो गए, बच्चा प्रसाद की रखवाली करने लगा। अनेको प्रयास किए पर चूहों को प्रसाद खाने से रोक न पाया, और अब अन्तिम उपाय का प्रयोग कर वह प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था। इसी बीच जैन मुनि आश्रम में लौट आए। बालक की कृति देख सन्न रह गए। जैन ऋषि के आश्रम का बच्चा घोर हिंसा में रत था। लकड़ी के धनुष बाण बनाकर चूहों पर निशाने लगा रहा था जो चूहा एक बार आता वह प्रसाद खाकर लौट नहीं पाता था। भयभीत चूहों ने आना कम कर दिया। बालक ने एक बाण धनुष पर रखा, डोरी खींचकर छोड़ने ही वाला था कि ऋषि ने हाथ पकड़ लिया । उसका चेहरा तमतमा उठा। क्रोध में आ हाथ झटक दिया। ऊपर देखा, तो ऋषि को खड़े पाया। अपनी भूल सुधार, प्रणाम कर नतमस्तक खड़ा हो गया।

“यह क्या बेटा! क्या इससे भगवान् महावीर प्रसन्न होंगे? हिंसा की प्रवृत्ति विनाश की ओर ले जाती है।"

“गुरुवर! मैंने बहुत उपाय किए कि ये चूहे मान जाएं, परंतु नहीं माने। साम-दाम-भेद का प्रयोग इन पर निष्फल हो गया तो बाध्य होकर हमें दण्ड का मार्ग अपनाना पड़ा।“

ऋषि को उपाय न सूझा। मन-ही-मन बुदबुदाए-- "धोखा हो गया, यह साधु नहीं बन सकता।" फिर थोड़ी देर में उसकी जन्म लग्न का विचार करने बैठ गए। कुण्डली के नक्षत्र बोल रहे थे- "यह साधु नहीं, एक दिन राजा होगा।" ऋषि अपने असफल प्रयोग पर झुंझलाए। अचानक उनके मुंह से निकला-- "बेटा, तू ऋषि नहीं, राजा होगा एक दिन।"

यह वाक्य बालक के मस्तिष्क में बिंध गया। आश्रम छोड़ जंगल का रास्ता लिया। जंगली भीलों का संग्रह कर एक दस्यु दल तैयार किया। एक दिन साथियों के साथ रात के गहन अंधकार को चीरता वह एक गांव में पहुंच गया। सुनसान घर में घुस कीमती सामान इकट्ठा किया। दूसरे कमरे में घुसा तो सामान इकट्ठा करने की धुन में उसका हाथ दही के पात्र में चला गया।

तत्काल उसने हाथ खींच लिया और खाद्य का स्पर्श हो जाने से वह विचलित हो सोचने लगा कि अब यहां चोरी नहीं की जा सकती, खाद्य जो छू गया है और वह वैसे ही वापस लौट गया।

प्रातःकाल उठते ही घर के लोग सन्न रह गए। सामान इतस्ततः पड़ा देख आश्चर्य हुआ। सेठानी ने कमरे में प्रवेश किया तो दही में उंगलियों की छाप देखी । उसने सोचा कि यह चोर कोई कुलीन व्यक्ति है जो चोरी तो करता है परन्तु जिसे नमक का मूल्य भी ज्ञात है। उसने घोषणा करवाई, "जो कोई मेरे घर चोरी करने आया था, वह निर्भय होकर एक सप्ताह के अन्दर मुझे भाई की भांति मिले, मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगी।"

घोषणा का सातवां दिन । प्रचण्ड मार्तण्ड प्रकृति को झुलसा रहे थे। गांव के बाग में बैठे लोगों ने देखा कि एक युवक निर्भीकता के साथ गांव की ओर बढ़ा चला आ रहा है ओर देखते-ही-देखते वह सेठानी के द्वार पर पहुंच, बिना प्रतीक्षा किये भीतर घुसता चला गया। सेठानी को देख निःसंकोच भाव से बोला--"बहिन जी, प्रणाम ! मैं ही वह अभागा भाई हूं जो बहिन का घर लूटने आया था।" सेठानी ने ससम्मान उसे बैठाया। स्वागत के उत्तर में भील ने कहा-- “बहिन, जब मैं राजा हूंगा और मेरा राजतिलक होगा तो बहिन के नाते तुम्हें ही तिलक करना पड़ेगा।"

भील ने प्रणाम किया और जंगल का रास्ता लिया। "जब मैं राजा हूंगा" के आत्मविश्वास ने सेठानी पर गहरा प्रभाव डाला, पर समय के साथ वह भूल गई । भील लूटमार करता रहा।

भगवान् अंशुमाली अस्त हो रहे थे । विहग वृन्द अपने-अपने नीड़ों को लौट रहे थे। किसान घर को जा रहे थे और भील अपने साथियों के साथ लूट की घड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने देखा, एक सौदागर अपने घोड़े के साथ उस बियावान जंगल में निर्भय चला आ रहा है। भील ने अपने साथियों को लेकर क्षण भर में घोड़े को घेर लिया। सेठ खड़ा हो गया । कुछ क्षण शांत रहने के पश्चात् उसने अपनी झोली से पांच बाण निकाले और उसमें से दो तोड़कर फेंक दिये, शेष तीन संभालने लगा। भील इसका रहस्य न जान पाया। आश्चर्यचकित हो उसी से पूछ बैठा, "डाकूओं से घिरे होने पर जबकि जान-माल पर संकट है, तुमने बाण क्यों तोड़ डाले?

सेठ ने हँस कर कहा-- "मैंने सोचा, तुम तो तीन हो। इन तीन बाणों से काम चल जाएगा। दो व्यर्थ ही पड़े रहेंगे। इसलिए फेंक दिए।" यह सुन भील बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अभय देते हुए कहा, "जाओ! जब मैं राजा हूंगा, तो तुम्हें अपना प्रधान अमात्य बनाऊंगा।"

सेठ चला गया। कुछ दिन तक भील की आत्मविश्वासी आकृति उसके मानस पटल पर रेंगती रही, परन्तु बाद में भूल गया ।

काल का चक्र घूमा। अपने प्रचंड पराक्रम, साहस, जैन साधु की वाणी एवं आत्मविश्वास के बल पर वह भील राजस्थान में सर्वप्रथम गुर्जर राज्य का संस्थापक चावड़ा-वंशीय एक राजा हुआ। उसका “वनराज" नाम सर्वत्र प्रख्यात हो गया। सेठानी ने बहिन बन कर तिलक किया और वह सेठ उसका महामात्य हुआ जिसे एक दिन वह लूटने वाला था ।

-भानुप्रताप शुक्ल

(पाञ्चजन्य, अक्टूबर, 1959)

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