मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
भोर का शहर (कथा-कहानी)     
Author:मेधा झा

पछाड़ खाती तीव्र लहरों का काले पत्थरों से टकरा कर लौटना, बीच से एक श्यामल सी मोहक छवि का उभरना और उन्हीं चोट खाती लहरों के बीच से दिखना किसी की बेचैन आंखें। कौंधना प्रकृति के सानिध्य में बसा एक मनोरम स्थल और ॐ की ध्वनि का आना।

प्रचंड वेग से आती समुद्री लहरों की आवाज से अचानक चौंक कर उसकी आंखों का खुलना। क्यों बेचैन है वो? क्या छिपा है उस स्वप्न के पीछे? यह कौन सी जगह है, जो उसे बार-बार आकृष्ट करती है? क्या छिपा है इन काले पत्थरों से टकराती लहरों के पीछे?

क्या किसी की तलाश में थीं वो दो आंखें? सामान्य तलाश से अलग, क्या दैवीय पुकार भी कुछ होता है, जो तमाम भौगोलिक सीमाओं से परे, देह से परे , दो आत्माओं को एक दूसरे की तरफ आकृष्ट करता है। वह बेचैन आंखों वाली यहां की तो नहीं लगती। हजारों प्रश्न और कोई जवाब नहीं। छटपटाहट से छुटकारा का अब एक ही इलाज था।

यायावरी देवांशी के लिए शौक मात्र नहीं था, बल्कि उसका जुनून था। जब तलब उठती उसको इसकी, तो बिन बताए किसी को , दो चार कपड़े और उपयोगी सामान लिए निकल पड़ती थी वो। अनजाने लोग, जगह , उनके संस्कृति को जानना - दिव्य अनुभूति से भर देता उसे। कौन कहता है दुनिया में सिर्फ नकारात्मकता है, हरेक नई जगह एक नए ईश्वर से परिचय होता उसे।

कुछ महीनों से अपने सामान्य दिनचर्या में व्यस्त रही थी और उसका जुनून कहीं उपेक्षित से कोने में पड़ा था। आश्चर्य हो रहा था उसे अपने सपने पर। कभी कभार स्मृतियों में कौंधता वही दृश्य और कुछ क्षण बेचैनी से भरे होते उसके लिए।

आज कई महीनों बाद ब्यूटी पार्लर आई थी वह। अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए आदतन उठाया उसने वहीं रखा एक पर्यटन मैगज़ीन और अनमने भाव से पलटते हुए अचानक लगा कि कुछ परिचित सा गुजरा उसकी आंखों के सामने से। उंगलियां आगे के पृष्ठों को पलटती जा रहीं थीं, लेकिन उस क्षणांश में भी दृष्टि ने कुछ कैद कर लिया था अपने अंदर। फिर से पलटा उन्हीं पिछले पृष्ठों को उसने और आंखें फैल गई उसकी, सपने में दिखी वही आबनूसी काले पत्थरों को हृदय लगातीं अनंत तक फैली अथाह जलराशि की तस्वीर और नीचे लिखा था पांडिचेरी टूरिज्म की टैग लाइन - 'पीसफुल पांडिचेरी - गिव टाइम ए ब्रेक।' क्या समय आ गया था स्वयं को विराम देने का इस उथल पुथल से?

पांडिचेरी - ठहर गई दृष्टि उसकी इस पर। कुछ तो है इस जगह से उसका रिश्ता , जो आकृष्ट कर रहा उसे बार बार। आश्चर्य है ये जगह इतना परिचित सा दिख रहा उसे, जैसे कई कई बार साक्षात्कार किया हो उसने इसका। उसकी अगली मंजिल तय हो चुकी थी। अथाह उत्साह से किलक रहा था मन उसका, पानी के प्यासे पर जैसे तकदीर ने अमृत वर्षा कर दी हो।

दो दिन बाद सुबह छह बजे शानदार चौड़ी सड़क से तमिलनाडु की सीमा पार कर कार दौड़ती जा रही थी अपने गंतव्य पांडिचेरी की तरफ और साथ में कई कई स्मृतियां कौंध रही थी। चेहरे को स्पर्श कर रहीं थीं ठंडी हवाएं और झटके से जागृत हो रही थी कई सारी यादें।

घर के दाहिने तरफ का प्रकाशित कमरा, उसमें टंगा श्वेत श्याम श्री अरविन्द घोष और द मदर की तस्वीर। प्रत्येक सांस के साथ नासिका में भरता मोगरा अगरबत्ती की सुगंध । यादों में भी सुवासित हो उठा उसका मन। तस्वीर के समक्ष बैठे सारे भाई बहन मम्मी पापा के साथ। फिर गूंजती पापा की सुंदर गंभीर सधी हुई आवाज -

'ॐ आनंदमयी चैतन्यमयी सत्यमयी परमे।'
'हे मां, तुम आनंद का स्रोत हो, तुम चेतना का स्रोत हो, और तुम सत्य का स्रोत हो, तुम ही सर्वोच्च हो।'

सब उनके पीछे दुहराते। फिर कई और मंत्रोच्चार। पता नहीं कब उसके जीवन में श्री अरविंद , श्री माता जी के साथ समाहित होकर परिवार का अंग होते चले गए।

पापा हमेशा कहते कि हम लोग जाएंगे पांडिचेरी के अरविंदो आश्रम में और आश्रम की सुंदर तस्वीर खींच देते आंखों के समक्ष। वैसे भी उस समय गूगल के प्रयोग से लोग वाकिफ ही कहां थे। हमारी सारी जानकारियों के स्रोत पापा का जीवंत वर्णन और फिर उनकी बनाई हुई तस्वीरें ही रहती। जब भी बात होती अरविंदो आश्रम की और वहां के निर्मल सुंदर समुद्र तट की, मन पहुंच जाता उस अनदेखे प्रदेश में। कैसा होगा वह जगह, जिसने अरविंद घोष को दिव्य तपस्वी में बदल दिया। क्या होगा वहां , जिससे आकर्षित होकर एक विदेशी महिला अपना देश, अपने लोग को छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए यहां की हो ली। कैसा होगा वह जगह जहां रवीन्द्रनाथ की कही पंक्तियों को साकार करने का जिम्मा एक सुदूर देश की महिला ने उठाया होगा ऑरोविले की कल्पना करके। एक ऐसी दुनिया की कल्पना जहां विश्व संकीर्ण दीवारों द्वारा विभाजित ना हो।

आज सालों बाद देवांशी निकली थी इस दिव्य जगह की ओर और साथ में थे पापा मम्मी भी। वैसे भी इस जगह को जाने की कल्पना उनके बगैर हो ही नहीं सकती थी। अब प्रवेश कर रहे थे वो उस अनदेखे प्रदेश की सीमाओं से, जो कहीं से भी अपरिचित लग नहीं रहा था उसे।

होटल लॉबी में उसकी दृष्टि उठी और लगा दो स्नेहिल आंखों ने मुस्कुरा कर स्वागत किया उसका। श्री माता के बगल में श्री अरविन्द की दैवीय छवि, लगा जैसे अपने बाबा स्नेह से आशीर्वाद दे रहे हों उसे।

अब समय था सालों से स्वप्न में देखे जगह से साक्षात्कार का। कदम स्वतः बढ़ते जा रहे थे उसके समुद्र तट की तरफ। लग रहा था मानो सालों बाद अपने घर लौटी हो वो और अब जोरों से हृदय धड़कने लगा उसका। वही तीव्र लहरें समूचे वेग से दौड़ रही थी उसके तरफ। शायद वो भी उतनी ही बेताब थी उसे अपने आलिंगन में लेने को। एक पल के लिए लगा उसे कि सब तरफ शून्य है और सिर्फ वह है और उसे अपने में समाहित करने को बेताब उसका कोई आत्मीय। सम्मोहित से करने वाले पल की तंद्रा से मुक्त हुई वह मां की आवाज से। श्री मां ने जगत मां के स्वरूप में पहले उसे वह दिव्य अनुभूति करवाई और फिर खींच पर इस दुनिया में ले आई थीं।

अगला पूरा दिन समर्पित था अरविंद आश्रम, उसके सामने के गणपति मंदिर, विभिन्न चर्चों , म्यूजियम को देखने में। हर जगह वही आत्मीयता, वही अपने घर वापसी का अहसास। और अंतिम दिन रखा था खासकर उसने ऑरोविले के लिए।

आज प्रवेश कर रही थी वो इस अद्भुत आश्रम में, जहां पारंपरिक आश्रम जैसा कुछ था ही नहीं। आत्मीय मुस्कान ओढ़े वह बुजुर्ग बताए जा रहे थे उन्हें - औरोविले, जिसे फ्रेंच में भोर का शहर कहा जाता है। इस आत्मा के उदित होने के शहर की कल्पना की थी द मदर ने, एक फ्रांसीसी महिला ने। और उनके नाम चयन का एक कारण अरविंदो के नाम के शुरुआती अक्षरों से साम्य भी तो था।

सोच रही थी देवांशी - क्या सब कुछ दैवीय ही था या मात्र संयोग। फ्रांसीसी मिर्रा अल्फासा के नाम का साम्य कृष्ण दीवानी मीरा से होना, विवेकानंद के राजयोग को पढ़ कर भारत में रुचि का जगना और उनके बचपन में आभासित होने वाले श्यामल छवि से श्री अरविंदो के रूप में साक्षात्कार होना।

सोचती रह गई देवांशी - जहां हमारे सोचने की सीमा खत्म होती है, वहीं से बहुत कुछ इस ब्रह्माण्ड में शुरू होता है। मन में पुन: ध्वनित हुआ ॐ का स्वर और लगा समुद्र में डूबते सूर्य के समान उसकी सारी उद्वेगता समुद्र में क्रमशः विलीन हो रही हैं।

- मेधा झा

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