मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 
हमें खेलने जाने दो  (बाल-साहित्य )     
Author:शिव मृदुल

मम्मी-पापा! रोको मत,
बाहर जाते टोको मत।
उम्र खेलने जाने की,
दूध-दही, घी खाने की।
खाया-पिया पचाने दो,
हमें खेलने जाने दो।

अभी न पढ़ना आता है,
खूब खेलना भाता है।
बस्ता अभी न उठता है,
कमरे में दम घुटता है।
खुली हवा में जाने दो,
लारा-लप्पा गाने दो।

कच्ची उम्र हमारी है,
बस्ता कितना भारी है।
नाहक बोझ बढ़ाते हो,
हमको क्यों दहलाते हो।
कुछ तो ताकत आने दो,
हमें खेलने जाने दो।

-शिव मृदुल

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