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यह कवि अपराजेय निराला, जिसको मिला गरल का प्याला; ढहा और तन टूट चुका है, पर जिसका माथा न झुका है; शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती, लेकिन अभी संभाले थाती, और उठाए विजय पताका- यह कवि है अपनी जनता का!
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