वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।
 

मैंने लिखा कुछ भी नहीं | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 डॉ सुधेश

मैंने लिखा कुछ भी नहीं
तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं ।

जो भी लिखा दिल से लिखा
इस के सिवा कुछ भी नहीं ।

मुझ से ज़माना है ख़फ़ा
मेरी ख़ता कुछ भी नहीं ।

तुम तो खुदा के बन्दे हो
मेरा खुदा कुछ भी नहीं ।

मैं ने उस पर जान दी
उस को वफ़ा कुछ भी नहीं ।

चाहा तुम्हें यह अब कहूँ
लेकिन कहा कुछ भी नहीं ।

यह तो नज़र की बात है
अच्छा बुरा कुछ भी नहीं ।

- सुधेश

 

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