साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
 

जितने पूजाघर हैं | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 राजगोपाल सिंह

जितने पूजाघर हैं सबको तोड़िये
आदमी को आदमी से जोड़िये

एक क़तरा भी नहीं है ख़ून का
राष्ट्रीयता की देह न निचोड़िये

स्वार्थ में उलझे हैं सारे रहनुमां
इनपे अब विश्वास करना छोड़िये

घर में चटखे आइने रखते कहीं
दूर जाकर फेंकिये या फोड़िये

इक छलावे से अधिक कुछ भी नहीं
कुर्सियों की ये सियासत छोड़िये

- राजगोपाल सिंह

 

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