समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
 

कोई फिर कैसे.... | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 कुँअर बेचैन

कोई फिर कैसे किसी शख़्स की पहचान करे
सूरतें सारी नकाबों में सफ़र करती हैं

अच्छे इंसान ही घाटे में रहे हैं अक्सर
वो हैं चीजें जो मुनाफ़ों मे सफर करती हैं

क्या पता बीच मे छलके कि लबो तक पहुँचे
ये शराबें जो गिलासो में सफ़र करती हैं

जो किसी के भी चुभी हो तो हमे बतलाएँ
खुशबुएँ रोज ही काँटो मे सफ़र करती हैं

सिर्फ़ मेरा ही नही सबका यही कहना है
मंजिलें अच्छे इरादों मे सफ़र करती हैं

वो किसी एक की होकर के रहें नामुमकिन
सारी नदियाँ दो किनारों में सफ़र करती हैं

रोशनी दे के जमाने को, चला जाऊँगा
बातियाँ जैसे चराग़ों में सफ़र करती हैं

उसको बस मोम कहो ढल जो गया साँचों में
हस्तियाँ कब किन्हीं साँचों में सफ़र करती हैं

- कुअँर बेचैन

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश