वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।
 

लौटना | सुशांत सुप्रिय की कविता

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 सुशांत सुप्रिय

बरसों बाद लौटा हूँ
अपने बचपन के स्कूल में
जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से
झाँक रहा है
स्कूल-बैग उठाए
एक जाना-पहचाना बच्चा

ब्लैक-बोर्ड पर लिखे धुँधले अक्षर
धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं
मैदान में क्रिकेट खेलते
बच्चों के फ़्रीज़ हो चुके चेहरे
फिर से जीवंत होने लगे हैं
सुनहरे फ़्रेम वाले चश्मे के पीछे से
ताक रही हैं दो अनुभवी आँखें
हाथों में चाॅक पकड़े

अपने ज़हन के जाले झाड़कर
मैं उठ खड़ा होता हूँ

लाॅन में वह शर्मीला पेड़
अब भी वहीं है
जिस की छाल पर
एक वासंती दिन
दो मासूमों ने कुरेद दिए थे
दिल की तस्वीर के इर्द-गिर्द
अपने-अपने उत्सुक नाम

समय की भिंची मुट्ठियाँ
धीरे-धीरे खुल रही हैं
स्मृतियों के आईने में एक बच्चा
अपना जीवन सँवार रहा है...

इसी तरह कई जगहों पर
कई बार लौटते हैं हम
उस अंतिम लौटने से पहले।

 

- सुशांत सुप्रिय
 मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा
 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग ,
 बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) ,
 नई दिल्ली - 110055
मो: 9868511282 / 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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