मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 

कैसे होगी हिंदी की प्रगति और विकास

 (विविध) 
 
रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

सम्मेलन के सत्रों का हाल तो कुछ और ही था। प्रत्येक सत्र में पत्रकारों का छायाचित्र लेने या रिकार्डिंग करने पर प्रतिबंध था। वे शायद उद्घाटन व समापन समारोह के लिए ही आमंत्रित किए गए थे। मंच पर बैठे पत्रकार बिरादरी के मित्र भी सरकारी पाले में जाकर सरकारी बातें करने लगे थे, "अरे! इतना बड़ा समारोह है! ज़रा आयोजकों की मजबूरी भी तो समझिए!"  
 
अब कई पत्रकार बेचारे तो बुरे फंसे उनके पास मीडिया का पास तो था वे अंदर जा सकते थे लेकिन अब प्रतिनिधि वाला परिचय-पत्र न होने से चाय-नाश्ता निषेध था। इधर हाल यह था कि प्रतिनिधियों और अतिथियों को चाय के लिए तरसते देखा!

कुछ कहेंगे हमने तो ऐसा नहीं देखा - भाई, आप विशिष्ट जो थे! अंदर जो श्रेणी विभाजन किया गया था प्रतिनिधियों और विशिष्ट का - उसमें अंतर तो रहता ही है, न! स्वाभाविक है!
 
अगले दिन फिर कुछ पत्रकार चाय-नाश्ते की सोच रहे थे पर अब उनके पास 'प्रतिनिधि' वाला बिल्ला तो था नहीं यथा स्वयंसेवी सैनिक उन्हें अंदर कैसे जाने देते? मैं बाहर आया तो एक पत्रकार ने पूछा, "आपको अंदर कैसे जाने दिया?"
मैंने कहा, "भैय्या, भुगतान किया है! मीडिया के साथ-साथ प्रतिनिधि वाला बिल्ला भी है, न! शुल्क चुकाया है!"

अब भाई साहब क्या कहते चाय-नाश्ते का ख्याल छोड़ पानी पीने चल दिए फिर बाकी दिन वे दिखाई नहीं पड़े।
 
दो पत्रकार भाई अपने होटल में ही पास में ठहरे थे। एक सपत्नीक थे। पहले दिन तो पत्नी के साथ सम्मेलन में ही थे लेकिन जब से चायपान व दोपहर का भोजन बंद हुआ उनका सम्मेलन में आना भी बंद हुआ। अब आयोजकों का गणित देखिए! आमंत्रित किए गए पत्रकारों को होटल व कार की सेवाएं दी गई थीं। होटल में सुबह का नाश्ता करके भाई लोग पत्नी को लेकर 70-80 किलोमीटर जाकर शाम को वापिस आ जाते थे। एक जो पर्चा बांटा था ना के आसपास 'भाई साहब' ने वे सब देख लिए थे। 

दूसरे भाई भी मुफ्त की गाड़ी खूब दौड़ा रहे थे। मैंने पूछा, "आप दिखाई ही नहीं दिए?"
 
"सत्रों में तो बैठना 'अलाउड' नहीं। खाने के लिए भी वहाँ 'प्राब्लम' आ रही थी तो बस होटल में ही रहे, कुछ इधर-उधर घूम लिए।"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
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