समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
 

हमारी सभ्यता

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt

शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे ।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की,
आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की ।। ४५ ।।

'हाँ' और 'ना' भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते ।
जब थे दिगम्बर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्र को थे चूमते ।। ४६ ।।

जब मांस-भक्षण पर वनों में अन्य जन थे जी रहे,
कृषि-कार्य्य करके आर्य्य तब शुचि सोमरस थे पी रहे ।
मिलता न यह सात्त्विक सु-भोजन यदि शुभाविष्कार का,
तो पार क्या रहता जगत में उस विकृत व्यापार का ? ।। ४७ ।।

था गर्व नित्य निजस्व का पर दम्भ से हम दूर थे,
थे धर्म्म-भीरु परन्तु हम सब काल सच्चे शूर थे ।
सब लोक-सुख हम भोगते थे बान्धवों के साथ में,
पर पारलौकिक-सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में ।। ४८ ।।

थे ज्यों समुन्नति के सुखद उत्तुंग शृंगों पर चढ़े,
त्यों ही विशुद्ध विनीतता में हम सभी से थे बढ़े ।
भव-सिन्धु तरने के लिए आत्मावलम्बी धीर ज्यों,
परमार्थ-साध्य-हेतु थे आतुर परन्तु गम्भीर त्यों ।। ४९ ।।

यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म्म से फल-कामना करना न हम थे जानते ।
विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकान्त था,
'आत्मा अमर है, देह नश्वर' यह अटल सिद्धान्त था ।। ५० ।।

हम दूसरों के दुःख को थे दुःख अपना मानते,
हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते--
'जो ईश कर्त्ता है हमारा दूसरों का भी वही,
है कर्म्म भिन्न परन्तु सबमें तत्व-समता हो रही' ।। ५१ ।।

बिकते गुलाम न थे यहाँ हममें न ऐसी रीति थी;
सेवक-जनों पर भी हमारी नित्य रहती प्रीति थी ।
वह नीति ऐसी थी कि चाहे हम कभी भूखे रहें,
पर बात क्या, जीते हमारे जो कभी वे दुख सहें? ।। ५२ ।।

अपने लिए भी आज हम क्यों जी न सकते हों यहाँ,
पर दूसरों के अर्थ मरना मान्य था न हमें कहाँ ?
यद्यपि जगत में हम स्वयं विख्यात जीवन मुक्त थे,
करते तदपि जीवन्मृतों को दिव्य जीवन-युक्त थे ।। ५३ ।।

थी दूसरों की आपदा हरणार्थ अपनी सम्पदा,
कहते नहीं थे किन्तु हम करके दिखाते थे सदा ।
नीचे गिरे को प्रेम से ऊँचा चढ़ाते थे हमीं,
पीछे रहे को घूमकर आगे बढ़ाते थे हमीं ।। ५४ ।।

संयम-नियम-पूर्वक प्रथम बल और विद्या प्राप्त की,
होकर गृही फिर लोक की कर्तव्य-रीति समाप्त की ।
हम, अन्त में भव-बन्धनों को थे सदा को तोड़ते,
आदर्श भावी सृष्टि हित थे मुक्ति-पथ में छोड़ते ।। ५५ ।।

हमको विदित थे तत्व सारे नाश और विकास के,
कोई रहस्य छिपे न थे पृथ्वी तथा आकाश के।
थे जो हजारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहे,
विज्ञान-वेत्ता अब वही सिद्धान्त निश्चित कर रहे ।। ५६ ।।

"है हानिकारक नीति निश्चय निकट कुल में ब्याह की,
है लाभकारक रीति शव के गाड़ने से दाह की।"
यूरोप के विद्वान भी अब इस तरह कहने लगे
देखो कि उलटे स्रोत सीधे किस तरह बहने लगे ! ।। ५७ ।।

निज कार्य प्रभु की प्रेरणा ही थे नहीं हम जानते,
प्रत्युत उसे प्रभु का किया ही थे सदा हम मानते ।
भय था हमें तो बस उसीका और हम किससे डरे ?
हाँ, जब मरे हम तब उसी के प्रेम से विह्वल मरे ।। ५८ ।।

था कौन ईश्वर के सिवा जिसको हमारा सिर झुके ?
हाँ, कौन ऐसा स्थान था जिसमें हमारी गति रुके ?
सारी धरा तो थी धरा ही, सिन्धु भी बँधवा दिया;
आकाश में भी आत्म-बल से सहज ही विचरण किया ।। ५९ ।।

हम बाह्य उन्नति पर कभी मरते न थे संसार में,
बस मग्न थे अन्तर्जगत के अमृत-पारावार में।
जड़ से हमें क्या, जब कि हम थे नित्य चेतन से मिले,
हैं दीप उनके निकट क्या जो पद्म दिनकर से खिले ? ।। ६०।।

रौंदी हुई है सब हमारी भूमि इस संसार की,
फैला दिया व्यापार, कर दी धूम धर्म-प्रचार की ।
कप्तान ‘कोलम्बस' कहाँ था उस समय, कोई कहे?
जब के सुचिन्ह अमेरिका में हैं हमारे मिल रहे ।।६१ ।।

- मैथिलीशरण गुप्त
[ भारत-भारती]

 

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश