समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
 

अभिसारिका | गद्यगीत

 (विविध) 
 
रचनाकार:

 जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली

प्रतिदिन संझा लाली से झोली भर अभिसार के लिए अपना श्रृंगार करती है।
तारे आकर गीत गाने लगते हैं।

आँखों की काली रेखा को पारकर मद का संगीत सारे जगत में बहकर फैल जाता है।
पैरों के पायल मीठी गत में बजकर एक रसना की सृष्टि करते हैं।

उस पार खड़ा प्रेमी अपनी इस चिरयौवना नायिका को अभिसार के लिए आते देख
कुटिल हँसी से मुस्करा उठता है।

संझा लज्जा से भर अपनी झोली की लाली फेंक देती है और अपने को काले आवरण में छिपा लौट आती है।

अनन्त की इस अभिसारिका का अभिसार व्यर्थ ही चला करता है।

-वनमाली

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