साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
 

गीता का सार

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 आराधना झा श्रीवास्तव

तू आप ही अपना शत्रु है
तू आप ही अपना मित्र,
या रख जीवन काग़ज़ कोरा
या खींच कर्म से चित्र।

तू मन में अब ये ठान ले,
है कर्म ही धर्म ये जान ले।
भ्रम का अपने संज्ञान ले,
तू माध्यम मात्र ये मान ले।

तुम साधन हो जिस कर्म के
उस कर्म का मैं ही कर्ता हूँ।
जिस शोक में डूबे हो अर्जुन
उस शोक का मैं ही हर्ता हूँ।

मैं ही कण हूँ, मैं ही सृष्टि,
मैं ही घटना, मैं ही दृष्टि।
मैं कृष्ण, मैं अर्जुन, मैं कुरुक्षेत्र,
मैं ही संजय औ’ उसका नेत्र।

है कहो कहाँ नहीं समाया हूँ?
मैं योग मैं ही तो माया हूँ।
हर युग में लीला रचाता हूँ,
मैं राम, मैं कृष्ण कहलाता हूँ।

तुम गांडीव नहीं उठाओगे
पर होनी टाल न पाओगे।
ये योद्धा प्राण गँवाएँगे,
अपनी गति को ही पाएँगे।

ये नियति है इसकी काट नहीं,
इससे बचने की बाट नहीं।
इस सत्य को तुम स्वीकार करो,
हे धनुर्धर गांडीव धरो।

ये कैसी दुविधा कहो पार्थ?
जनहित से बढ़कर हुआ स्वार्थ?
मुझ में समर्पण का भाव धरो,
हे कौंतेय अपना कर्म करो।

है अविनाशी यह चेतना
प्राणों का फिर क्यों मोह करे?
नश्वर काया के मिटने से
तू व्यर्थ में ही इतना है डरे।

ये जीव मुझ से ही तो
जग में विस्तार पाते हैं,
मृत्यु पथ पर चलकर
मुझ में ही वापस आते हैं।

मृत्यु ही अंतिम सत्य है
इस सत्य को तुम पहचान लो,
हैं स्वयं प्रभु तेरे सामने
मुझसे गीता का ज्ञान लो।

नियति-नियंता नियत समय
कर्मों का फल देते हैं,
चिंता फल की मत कर तू
ये स्वयं प्रभु कहते हैं।

गीता में जीवन-सार छिपा
ये कर्म का पथ दिखलाता है
दुविधा की काली रात में
ये ज्ञान का दीप जलाता है।

मन के चक्षु को खोल दे
भ्रम का हर जाल हटाता है,
एक बिंदु से ब्रह्मांड तक
अनंत विस्तार दिखाता है।

सुलझा मन की उलझी ग्रंथि
जीवन का मर्म सिखाता है,
निस्तार के, संसार के
सब भेद खोल समझाता है।

भ्रम का हर जाल मिटाता है
जीवन का मर्म सिखाता है,
उर में उर्जा संचित कर दे
गीता वह दिव्य-पुंज कहलाता है।

-आराधना झा श्रीवास्तव
  सिंगापुर

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