मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 

बीता मेरे साथ जो अब तक | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

बीता मेरे साथ जो अब तक, वो बतलाने आई हूँ
जीवन के इस उलझेपन को मैं सुलझाने आई हूँ

पाया जिससे जैसा भी था, मैंने अपने जीवन में
प्यार का बनकर मैं सौदागर, वो लौटाने आई हूँ

सागर मुझसे पूछ रहा है, नाव मेरी क्यूँ डोल रही
मैं तो लहरों की सरगम पर, ताल लगाने आई हूँ

जख्मीं होकर तूफानों से, यहाँ वहाँ मैं गिरती हूँ
सपनों के नभ पर पंखों को, मैं फैलाने आई हूँ

सीढ़ी मैंने चढ़नी चाही, लोग गिराते नहीं थके
खुद से खुद की बन बैसाखी पाँव जमाने आई हूँ

जीवन की इस भागदौड़ में, जो जो सपने टूट रहे
जादू की सी छड़ी घुमाकर, सच करवाने आई हूँ

धूल की चादर के नीचे जो, मीठी यादें सोईं थीं
बना एलबम उन यादों की, आज जगाने आई हूँ

पा सकते हो सारी खुशियाँ, अगर इरादे पक्के हों
लेकर अपने कलम की ताकत, ये समझाने आई हूँ

-डॉ० भावना कुँअर
 सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

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