मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
 

झेप अपनी मिटाने निकले हैं

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 विजय कुमार सिंघल

झेप अपनी मिटाने निकले हैं
फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं

ऊब कर आदमी की बस्ती से
टहलने के बहाने निकले हैं

शुक्र है अपनी अंधी  बस्ती में
चंद हज़रात काने निकले हैं

पोंछ कर अश्क बंद कमरे में
आज फिर मुस्कराने निकले हैं

सूदखोरों की एक अमानत हैं 
खेत से जितने दाने निकले हैं

जिसका चूल्हा जला न हफ्तों से
अब उसी को जलाने निकले हैं

-विजय कुमार सिंघल

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश