उर्दू जबान ब्रजभाषा से निकली है। - मुहम्मद हुसैन 'आजाद'।
 

ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 राजेश्वर वशिष्ठ

हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थीं
चर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों की
राम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थी
चरक संहिता और लघु पाराशरी
हम उन ग्रंथों को सम्भालने में ही लगे रहते थे!
घर में अक्सर खाली रहता था
अनाज का भंडार
पिता की जेबों में
शायद ही कभी दिखते थे हरे हरे नोट
पर हमें भूखा नहीं रहना पड़ा कभी
जब भी माँ शिकायत करती
कुछ न होने की
कोई न कोई निवासी
मुहुर्त या लग्न पूछने के बहाने
दे ही जाता सेर भर अनाज,
गुड़ और सवा रुपया
और पिता जी उन रुपयों को
संभाल कर रख देते
मंदिर के लाल कपड़े के नीचे,
लक्ष्मी के चरणों में!

घर के आँगन में बंधी रहती थी
एक सुंदर सी गाय
जिसे हम कामधेनु कहते थे
उसके नाम पर अक्सर मुझे रोमांच हो आता
और मैं पूछता पिता से
उन्हें कहाँ से मिली यह गाय
वे मुस्कुरा कर कहते - समुद्र मंथन से
फिर मैं चुपके से
सुखसागर निकाल कर उसमें पढ़ता -
समुद्र मंथन की कथा!
एक अद्भुत कथा जिसमें कछुआ बन कर विष्णु
अपनी छाती पर रखे मंदार पर्वत को
मजबूती से पकड़ लेते अपने हाथों-पाँवों से
वासुकी नाग पर्वत पर लिपट जाता रस्सी की तरह
और क्षीरसागर का मंथन करते देवता और असुर
होने लगते पसीने से तरबतर!
पूरी कथा पढ़ने तक धैर्य दे जाता जवाब और
मैंउन चौदह रत्नों में से
कामधेनु को लेकरचुपचाप चला आता
अपने घर के दरवाज़े पर
मैंने कभी नहीं सोचा
लक्ष्मी या कौस्तुभ मणि के विषय में!
मैं आज तक नहीं समझ पाया
मेरे पिता ने क्यों सिखाया यह विधान
कि गणेश स्तुति के बाद
स्मरण करो शिव और सरस्वती का
फिर दुर्गा सप्तशती के कुछ अंश
और अंत में प्रणाम करते हुए
लक्ष्मी तथा अन्य देवताओं को
पूजा हो जाती है सम्पन्न
आज तक चल रहा है यही क्रम निर्बाध!
कई बार लगा कि हमें
दुर्गा या सरस्वती से ज़्यादा
ज़रूरत है लक्ष्मी की
हमारी खिड़की के ऊपर
कई दिनों तक बैठता रहा उल्लू
दीपावली की रात को
किए कितने ही मंत्रोच्चार
पर लक्ष्मी कभी सुस्ताने नहीं आई हमारे घर में!

आज दीपावली की पूर्व संध्या पर
मनस्विनी का स्मरण करते हुए
एक बच्चे के हाथों में थमा देता हूँ
एक छोटी सी खुशी
आँखों से लुढ़क जाते हैं दो आँसू
पहुँच जाता हूँ
गाँव के अपने पुस्तैनी घर में
जहाँ पुस्तकें ही पुस्तकें हैं,
कामधेनु है
और श्वेत वस्त्रा मनस्विनी
बैठी हैं पूजा गृह में दुर्गा के साथ
सरस्वती के स्थान पर!
मुझे लगता है
लक्ष्मी का होना तो बस वैसा ही है
जैसे हवा चलती है धरती पर
सूर्य चमकता है आसमान में
और जल रहता है
आकाश, पाताल और समुद्र में
उन्हें कोई कितना सहेज लेगा?
आओ, वर्ष में एक दिन
उन्हें भी कर लेते हैं प्रणाम
ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः!

-राजेश्वर वशिष्ठ
[ सुनो, वाल्मीकि, कविता-संग्रह, किताबनामा प्रकाशन
नई दिल्ली ]

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश