कवि संमेलन हिंदी प्रचार के बहुत उपयोगी साधन हैं। - श्रीनारायण चतुर्वेदी।
 

चाहता हूँ चुप रहे (काव्य)

Author: विजय कुमार सिंह

चाहता हूँ, चुप रहे कुछ भी न बोले,
पर मेरा मन तब भी मुझसे बोलता है।
गीत सुख के अब अधिक गाता नहीं है,
उस तरह होकर भी मुस्काता नहीं है।

रास आते अब इसे हैं स्थान निर्जन,
भीड़ की जगहों में अब जाता नहीं है।
चाहता हूँ, हो रहे स्थिर तनिक सा,
पर सदा निर्द्वन्द होकर डोलता है।

चाहता हूँ चुप रहे कुछ भी न बोले,
पर मेरा मन तब भी मुझसे बोलता है।
आ सुनाता है मुझे मेरी व्यथाएँ,
मुझसे कहता है सभी पिछली कथाएँ।

खो रहूँ दिन-रात फिर से मैं उन्हीं में,
अश्रु रोदन है जहाँ चुपचाप आहें।
चाहता हूँ, मैं जिन्हें अब भूल जाना,
बात मेरी वे वही सब खोलता है।

चाहता हूँ चुप रहे कुछ भी न बोले,
पर मेरा मन तब भी मुझसे बोलता है।
अब तुम्हें यह सब बहुत अच्छा नहीं है,
प्रौढ़ अब है तू निरा बच्चा नहीं है।
राग जो भी हो बिना अब राग हो ले,
राग कोई हो सुनो सच्चा नहीं है।

चाहता हूँ, कह रहूँ इसको उचित यह,
पर तुला अपनी से खुद को तोलता है।
चाहता हूँ चुप रहे कुछ भी न बोले,
पर मेरा मन तब भी मुझसे बोलता है।

विजय कुमार सिंह, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया

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