हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
 

सियार और ढोल (बाल-साहित्य )

Author: विष्णु शर्मा

एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता, दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाया करते थे।

युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के ज़ोर में वह ढोल लुढ़कता-लुढ़कता एक सूखे पेड़ के पास जा टिका। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गईं कि तेज हवा चलते ही ढोल से टकरा जाती थी और ढमाढम-ढमाढम की आवाज़ करने लगती।

उस क्षेत्र में एक सियार घूमा करता था। उसने ढोल की आवाज़ सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज़ बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं 'ढमाढम'। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उड़नेवाला हैं या चार टांगो पर दौड़नेवाला।

एक दिन सियार झाड़ी के पीछे छुप कर ढोल पर नज़र रखे था। तभी पेड़ से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज़ भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।

सियार बड़बड़ाया, 'ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।'

सियार फूंक-फूंककर क़दम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर दिखायी दिया और न पैर। तभी हवा के झोंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज़ हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।

'अब समझ आया।' सियार ने सोचा, 'यह तो बाहर का खोल हैं। जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज़ बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम-ढम की जोरदार आवाज़ करता है।'

अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला, 'ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूँ।'

सियारी पूछने लगी 'तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'

सियार ने उसे झिडकी दी, 'क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूँ। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाज़े हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकड़ने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाज़े से भाग न जाता?'

चाँद निकलने पर दोनों ढोल का शिकार करने चल दिए। जब वे ढोल के निकट पहुंचने वाले थे तो अचानक हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज़ निकली। सियार सियारी के कान में बोला, 'सुनी उसकी आवाज़? जरा सोच जिसकी आवाज़ ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।'

दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाड़ने। जैसे ही चमड़ी कटने लगी, सियार बोला 'सावधान रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।'

दोनों ने ‘हूँ' की आवाज़ के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए 'आँय! यहाँ तो कुछ नहीं हैं।'

वे दोनों माथा पीटकर रह गए।

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