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 जूठे पत्ते | Hindi Geet by Balkrishna Sharma Naveen
हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। - देवव्रत शास्त्री।
 

जूठे पत्ते

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin

क्या देखा है तुमने नर को, नर के आगे हाथ पसारे?
क्या देखे हैं तुमने उसकी, आँखों में खारे फ़व्वारे?
देखे हैं? फिर भी कहते हो कि तुम नहीं हो विप्लवकारी?
तब तो तुम पत्थर हो, या महाभयंकर अत्याचारी।

अरे चाटते जूठे पत्ते, जिस दिन मैंने देखा नर को
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ, आज आग इस दुनिया भर को?
यह भी सोचा क्यों न टेंटुआ, घोंटा जाय स्वयं जगपति का?
जिसने अपने ही स्वरूप को, रूप दिया इस घृणित विकृति का।

जगपति कहाँ? अरे, सदियों से, वह तो हुआ राख की ढेरी।
वरना समता-संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
छोड़ आसरा अलख शक्ति का; रे नर, स्वयं जगपति तू है,
तू यदि जूठे पत्ते चाटे, तो मुझ पर लानत है, थू है!

कैसा बना रूप यह तेरा, घृणित, पतित, वीभत्स, भयंकर,
नहीं याद क्या मुझको, तू है चिर सुन्दर, नवीन, प्रलयंकर?
भिक्षा-पात्र फेंक हाथों से, तरे स्नायु बड़े बलशाली,
अभी उठेगा प्रलय नींद से, जरा बजा तू अपनी ताली।

औ भिखमंगे, अरे पराजित, ओ मज़लूम, अरे चिरदोहित,
तू अखंड भण्डार शक्ति का; जाग, अरे निद्रा-सम्मोहित।
प्राणों को तड़पाने वाली, हुंकारों से जल-थल भर दे,
अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित फलीता धर दे।

भूखा देख मुझे गर उमड़ें, आँसू नयनों में जग-जन के
तो तू कह दे : नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे;
तेरी भूख; असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल-
तो फिर समझूँगा कि हो गई सारी दुनिया कायर, निर्बल।

- पंडित बालकृष्ण शर्मा

 

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