भाषा विचार की पोशाक है। - डॉ. जानसन।
 

अर्जुन का संदेह

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 सुब्रह्मण्य भारती | Subramania Bharati

हस्तिनापुर मैं गुरु द्रोणाचार्य के पास पांडुपुत्र और दुर्योधन आदि विद्या अध्ययन कर रहे थे, तब की बात है। एक दिन संध्याकालीन बेला में वे लोग शुद्ध वायु का सेवन कर रहे थे तभी अर्जुन ने कर्ण से प्रश्न किया, "हे कर्ण! बताओ, युद्ध श्रैष्ठ है या शांति?"
(यह महाभारत की एक उपकथा है। प्रामाणिक है। कपोल-कल्पित नहीं।)

कर्ण ने कहा, ''शाति ही श्रेष्ठ है।"

अर्जुन ने पूछा, "ऐसा क्यों? क्या कारण है? ''

कर्ण बताने लगा, "हे अर्जुन! युद्ध हो तो मैं तुमसे लडूंगा। तुम्हें कष्ट होगा। मैं तो दयालु हूँ । तुम्हारा कष्ट मुझसे सहा न जाएगा। दोनों को दुखी होना पड़ेगा। इसलिए शांति ही श्रेष्ठ है।''

"हे कर्ण! मैंने यह प्रश्न अपने दोनों के संदर्भ में नहीं पूछा। सामान्य रूप से पूछा था कि युद्ध अच्छा है या शांति?" अर्जुन ने कहा ।

''सार्वजनिक बातों में मुझे कोई रुचि नहीं," कर्ण ने कहा।

अर्जुन ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि इस व्यक्ति को मार डालना है। अर्जुन ने गुरु द्रौणाचार्य से इसी प्रश्न को दुहराया ।

द्रोणाचार्य बोले, "युद्ध ही अच्छा है।"

पार्थ ने पूछा, "कैसे?"

द्रोणाचार्य ने कहा, "हे विजया! युद्ध में धन की प्राप्ति होगी, कीर्ति मिलेगी । नहीं तो वीरगति मिलेगी। शांति में तो यह सब कुछ अनिश्चित है।"

बाद में अर्जुन भीष्म पितामह से मिला । उनसे पूछा, "पितामह! युद्ध अच्छा है या शांति?"

इस पर गंगापुत्र ने बताया, "वत्स अर्जुन! शांति ही श्रेष्ट है । युद्ध से क्षत्रिय कुल की बढ़ाई और शाति से संसार को महत्ता प्राप्त होगी।"

अर्जुन बोना, "आपका कहना न्यायसंगत नहीं लगता ।'' पितामह बोले, "वत्स! पहले कारण बताओ, बाद में अपना निश्चय सुनाओ।"

"पितामह ! शांति में कर्ण श्रेष्ठ और मैं निकृष्ट हूँ । युद्ध हो तो सचाई प्रकट हो जायेगी।"

इस पर पितामह भीष्म ने कहा, "वत्स! धर्म हमेशा उन्नत रहेगा । युद्ध हो या शांति, विजय धर्म की ही होगी । इसलिए मन से क्रोधादि को दूर करके शांति की कामना करो। समस्त मानव तुम्हारे भ्रातृतुल्य हैं । मानव को परस्पर प्रेम से रहना चाहिए । प्रेम ही तारकमंत्र है । त्रिकाल की बात बताता हूँ । प्रेम ही तारक है।'' पितामह के नयनों से दो अश्रु-बिंदु ढुलक पड़े।

कुछ दिनों के उपरांत वेदब्यास मुनि हस्तिनापुर आये। अर्जुन ने उनके पास जाकर अपना प्रश्न दुहराया। मुनि ने कहा, ''दोनों ही अच्छे हैं। समय के अनुरूप इन्हें अपनाना है।"

कई वर्षो के उपरांत वनवास के समय दुर्योधन के पास दूत भेजने के पहले अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, "हे कृष्ण! बताआ, युद्ध अच्छा है या शांति?''

कृष्ण ने कहा, "अब तो शांति ही भली लगती है। इसीलिए शांति का दूत बनकर मैं हस्तिनापुर जा रहा हूँ । ''

-- सुब्रह्मण्य भारती 
   अनुवाद - सरस्वती रामनाथ 

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश