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हिन्दी भाषा
छ्प्पै
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद,
जिसका पावन नामही।
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चंदा मामा
चंदा मामा, दौड़े आओ
दूध कटोरा भरकर लाओ।
उसे प्यार से मुझे पिलाओ
मुझ पर छिड़क चाँदनी जाओ।
मैं तेरा मृग छौना लूँगा
उसके साथ हँसूँ-खेलूँगा।
उसकी उछल-कूद देखूँगा
उसको चाटूँगा, चूमूँगा।
-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
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खेलो रंग अबीर उड़ावो - होली कविता
खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो ।
पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ ।
न अपना रग गँवाओ ।
जनम-भूमि की रज को लेकर सिर पर ललक चढ़ाओ ।
पर अपने ऊँचे भावो को मिट्टी में न मिलाओ ।
न अपनी धूल उड़ाओ ।
प्यार उमंग रंग में भीगो सुन्दर फाग मचाओ ।
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कर्मवीर
देख कर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
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एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
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आरी नींद...| लोरी
आरी नींद लाल को आजा।
उसको करके प्यार सुलाजा॥
तुझे लाल है ललक बुलाते।
अपनी आँखों पर बिठलाते॥
तेरे लिये बिछाई पलकें।
बढ़ती ही जाती हैं ललकें॥
क्यों तू है इतनी इठलाती।
आ आ मैं हूँ तुझे बुलाती॥
गोद नींद की है अति प्यारी।
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'स-सार' संसार
है असार संसार नहीं।
यदि उसमें है सार नहीं तो सार नहीं है कहीं।
जहाँ ज्योति है परम दिव्य, दिव्यता दिखाई वहीं;
क्या जगमगा नहीं ए बातें तारक-चय ने कहीं?
दिखलाकर अगाधता विभु की निधि-धारायें बहीं;
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होली
मान अपना बचावो, सम्हलकर पाँव उठावो ।
गाबो भाव भरे गीतों को, बाजे उमग बजावो ॥
तानें ले ले रस बरसावो, पर ताने ना सहावो ।
भूल अपने को न जावो ।।१।।
बात हँसी की मरजादा से कड़कर हँसो हँसावो ।
पर अपने को बात बुरी कह आँखों से न गिरावो ।
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कुछ उलटी सीधी बातें
जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या ।
बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या ॥1॥
रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला ।
उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या ॥2॥
भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें ।
कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या ॥3॥
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दिव्य दोहे
अपने अपने काम से है सब ही को काम।
मन में रमता क्यों नहीं मेरा रमता राम ॥
गुरु-पग तो पूजे नहीं जी में जंग उमंग।
विद्या क्यों विद्या बने किए अविद्या संग॥
बातें करें आकास की बहक बहक हों मौन।
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