Author's Collection
Total Number Of Record :2मेरे व्यंग्य लेखन की राह बदलने वाले
उस उम्र में ‘आयुबाध्य' प्रेम के साथ-साथ मुबईया फिल्मों का प्रेम भी संग-संग पींग बढ़ाता था। पता नहीं कि फिल्मों के कारण मन में प्रेम का अंकुर फूटता था या मन में प्रेम के फूटे अंकुर के कारण हिंदी फिल्मों के प्रति एकतरफा प्रेम जागता था। या दोनो तरफ की आग बराबर होती थी। पर कुछ भी हो फिल्मो ने बॉम्बे के प्रति बेहद आकर्षण जगा दिया। हिंदी फिल्मों ने मेरे बॉम्बे ज्ञान में आकार्षणात्मक वृद्धि की। ये वृदिृध ज्यो ज्यों बूड़े श्याम रंग जैसी थी। चौपाटी जुहू के समुद्र और ऊंची इमारतों ने आकर्षण बढ़ाना आरम्भ कर दिया। दिल्ली में तो मैं एक ही ऊंची इमारत को जानता था और उसे देखा था--कुतुब मीनार। दिल्ली की सरकारी कर्मचारियों की कालोनी रामकृष्ण पुरम में पहली बार मनोरंजन के साधन, टी वी से आंखें चार हुईं।कम्युनिटी सेंटर में दूरदर्शन का चित्रहार और फि़ल्में देखते हुए बाली उमरिया अंगड़ाई लेने लगी। तब एटलस से निकलकर फिल्मी ज्ञान के माध्यम से मुम्बई के विशाल समुद्र और ऊंची इमारतों को देख जाना। न न न फिल्मों का भूत ऐसा नहीं था कि हीरो बनने के लिए बॉम्बे की रेलगाड़ी में चढ़ा देता और स्ट्रगल कराता। पर हां ऐसा अवश्य था कि प्रेमिका के साथ-साथ बॉम्बे का समुद्र और ऊंची अट्टालिकाएं भी सपनों का हिस्सा बनें।
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कबीरा क्यों खड़ा बाजार
संपादक ने फोन पर कहा- कबीरा खड़ा बाजार में।
मैने पूछा – मॉस्क के साथ या बिना मॉस्क के?
संपादक कबीरी शैली में बोला-कबीर ने तो दूसरों के मास्क उतारे हैं, वो क्यों मॉस्क लगाए?
मैं भी कबीरी शैली में बोला-
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