मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
आज भी खड़ी वो... (काव्य)    Print this  
Author:सपना सिंह ( सोनश्री )

निराला की कविता, 'तोड़ती पत्थर' को सपना सिंह (सोनश्री) आज के परिवेश में कुछ इस तरह से देखती हैं:

आज भी खड़ी वो...
तोडती पत्थर,
दिखी थी आपको,
क्या पता था,
टूटेगा,
और क्या क्या ?
कविवर,
क्या कहूँ,
वो दिखी थी
रास्ते में आपको,
आज,
जो पढ़ता है,
चला जाता है,
बस उसी रास्ते में ।
जिस कसक ने,
लेखनी चलाई थी,
उस दिन की,
वो कसक तो,
आज भी,
करती हैं विवश।
अफ़सोस,
पर आज भी,
तोडती हैं पत्थर,
वो खड़ी,
उसी रास्ते में ।
पसीने से,
लथपथ रूप उसका,
आज दया नहीं,
लोभ पैदा करता हैं ।
वो तब भी,
मजबूर थी,
आज भी,
है बेबस,
फरक...
बस इतना है,
वो कल,
दिखी थी आपको,
आज,
दिखती है सबको।

- सपना सिंह ( सोनश्री )

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Poem by Sapana Singh

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