मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
अशेष दान  (काव्य)    Print this  
Author:रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

किया है तुमने मुझे अशेष, तुम्हारी लीला यह भगवान!
रिक्त कर-कर यह भंगुर पात्र, सदा करते नवजीवन दान॥
लिए करमें यह नन्हीं वेणु, बजाते तुम गिरि-सरि-तट धूम।
बहे जिससे नित नूतन तान, भरा ऐसा कुछ इसमें प्राण॥
तुम्हारा पाकर अमृत-स्पर्श, पुलकता उर हो सीमाहीन।
फूट पड़ती वाणी से सतत, अनिर्वचनीय मनोरम तान॥
इसी नन्ही मुट्ठी में मुझे, दिए हैं तुमने निशिदिन दान।
गए हैं देते युग-युग बीत, यहाँ रहता है फिर भी स्थान॥

- रबीन्द्रनाथ टैगोर
  भावानुवाद :  सुधीन्द्र
  [विशाल भारत, 1942]

 

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