साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

घिन तो नहीं आती है ? | कविता

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 नागार्जुन | Nagarjuna

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पे दचके
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

कुली मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं
खींचते हैं ठेला
धूल-धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके-मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढ़ेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे में
बैठ गए हैं इधर-उधर तुमसे सट कर
आपस में उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे में
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे
अपने देस-कोस की
सच-सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

 

-नागार्जुन

साभार-अपने खेत में

 

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश