मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।

मेरा शीश नवा दो - गीतांजलि

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

मेरा शीश नवा दो अपनी
चरण-धूल के तल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।

अपने को गौरव देने को
अपमानित करता अपने को,
घेर स्वयं को घूम-घूम कर
मरता हूं पल-पल में।

देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
अपने कामों में न करूं मैं
आत्म-प्रचार प्रभो;
अपनी ही इच्छा मेरे
जीवन में पूर्ण करो।

मुझको अपनी चरम शांति दो
प्राणों में वह परम कांति हो
आप खड़े हो मुझे ओट दें
हृदय-कमल के दल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।

-रवीन्द्रनाथ टैगोर
साभार - गीतांजलि, भारती भाषा प्रकाशन (1979 संस्करण), दिल्ली
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी

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Posted By Akshat   on Wednesday, 18-Nov-2015-14:13
नाइस पोएम
Posted By shubham rai   on Tuesday, 04-Nov-2014-05:15
ये कविता मेरी प्रेरणाश्रोत है..... मै इसे बेहद पसंद करता हूँ.....मै रविन्द्रनाथ ठाकुर जी को बहुत प्यार करता हूँ...
Posted By srishti   on Friday, 30-May-2014-10:25
ये बड़ी अच्छी कविता है |
 
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