मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।

चौबीस घंटे की कथा

 (विविध) 
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रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

[ न्यूजीलैंड श्रम दिवस की ऐतिहासिक कथा ] 

बात 1839 के अंतिम महीनों की है। एक समुद्री जहाज इंग्लैंड से न्यूजीलैंड के लिए रवाना हुआ। 

इसी जहाज में सेम्युल डंकन पार्नेल (Samuel Duncan Parnell) नाम का एक बढ़ई और जॉर्ज हंटर (George Hunter) नाम का एक शिपिंग एजेंट भी यात्रा कर रहे थे। इसी समुद्री यात्रा के दौरान दोनों का परिचय हुआ। 1840 के फरवरी महीने में जहाज न्यूजीलैंड के तट पर आ पहुंचा और ये दोनों यात्री भी यहाँ की नई बस्ती में बस गए। 

यहाँ बस जाने के कुछ समय के बाद एक दिन जॉर्ज हंटर ने सेम्युल पार्नेल को अपने लिए एक स्टोर बनाने को पूछा।  

“मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है, मिस्टर हंटर, मैं प्रतिदिन केवल 8 घंटे ही काम करूंगा।“ 

“ऐसा क्यों?” जॉर्ज हंटर ने कुछ अचंभित होते हुए पूछा। 

“दिन में चौबीस घंटे होते हैं। आठ काम के लिए, आठ सोने के लिए, और शेष आठ मनोरंजन के लिए या इनमें व्यक्ति अपनी मरज़ी का कुछ भी करे।“  पार्नेल ने आगे कहा, “मैं कल सुबह आठ बजे काम शुरू करने के लिए तैयार हूँ, लेकिन आठ घंटे प्रतिदिन की शर्त पर अन्यथा मैं काम नहीं कर सकता।

“मिस्टर पार्नेल आप जानते हैं”, हंटर ने कहा, “लंदन में छह बजे काम करने की घंटी बजती है और यदि कोई व्यक्ति तैयार न हो तो वह दिन का एक चौथाई मेहनताना खो देता है।“ 

“हम लंदन में नहीं हैं।” पार्नेल ने उत्तर दिया। 

हंटर के पास पार्नेल की शर्त स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। 

आठ घंटे काम करने का यह पहला आंदोलन था जिसे तत्काल बिना शर्त के मान लिया गया था।  

आगे चलकर सेम्युल डंकन पार्नेल को न्यूज़ीलैंड में 'आठ घंटे काम करने की प्रणाली के जनक' के रूप में जाना गया। 

-रोहित कुमार हैप्पी

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