जो साहित्य केवल स्वप्नलोक की ओर ले जाये, वास्तविक जीवन को उपकृत करने में असमर्थ हो, वह नितांत महत्वहीन है। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।

भटकता हूँ दर-दर | ग़ज़ल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 त्रिलोचन

भटकता हूँ दर-दर कहाँ अपना घर है
इधर भी, सुना है कि उनकी नज़र है

उन्होंने मुझे देख के सुख जो पूछा
तो मैंने कहा कौन जाने किधर है

तुम्हारी कुशल कल जो पूछी उन्होंने
तो मैं रो दिया कह के आत्मा अमर है

क्यों बेकार ही ख़ाक दुनिया की छानी
जहाँ शांति भी चाहिए तो समर है

जो दुनिया से ऊबा तो अपने से ऊबा
ये कैसी हवा है, ये कैसा असर है ?

ये जीवन भी क्या है, कभी कुछ कभी कुछ
कहा मैंने कितना, नहीं है मगर है

बुरे दिन में भी जो बुराई न ताके
वही आदमी है वही एक नर है

‘त्रिलोचन' यह माना बचाकर चलोगे
मगर दुनिया है यह हमें इसका डर है

-त्रिलोचन

 

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