मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।

पेट-महिमा

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 बालमुकुन्द गुप्त

साधो पेट बड़ा हम जाना।
यह तो पागल किये जमाना॥
मात पिता दादा दादी घरवाली नानी नाना।
सारे बने पैट की खातिर वाकी फकत बहाना॥
पेट हमारा हुण्डी पुर्जा पेटहि माल खजाना।
जबसे जन्मे सिवा पेट के और न कुछ पहचाना॥
लड्डू पेड़ा पूरी बरफी रोटी साबूदाना।
सबै जात है इसी पेट में हलवा तालमखाना॥
यही पेट चट कर गया होटल पी गया बोतलखाना।
केला मूली आम सन्तरे सबका यही खजाना॥
पेट भरे लारड कर्जन ने लेक्चर देना जाना।
जब जब देखा तब तब समझे जइँ खाना तहँ गाना॥
बाहर धर्म भवन शिवमन्दिर क्या ढूँढे दीवाना।
ढूँढो इसी पेट में प्यारो तब कुछ मिले ठिकाना॥

-बालमुकुन्द गुप्त

 

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश