मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
वृन्द के नीति-दोहे (काव्य)    Print this  
Author:वृन्द

स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
जैसे पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ि जाहिं ।। १ ।।

मान होत है गुनन तें, गुन बिन मान न होइ ।
सुक सारी राखै सबै, काग न राखै कोइ ।। २ ।।

मूरख गुन समझै नहीं, तौ न गुनी में चूक ।
कहा भयो दिन को बिभो, देखै जो न उलूक ।। ३ ।।

विद्या-धन उद्यम बिना, कही जु पावै कौन ।
बिना डुलाए ना मिलें, ज्यों पंखे की पौन ।। ४ ।।

भले बुरे सब एकसों, जौ लो बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ऋतु बसन्त के माहिं ।। ५ ।।

मधुर बचन तें जात मिट,'उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान ।। ६ ।।

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घटि जात ।। ७ ।।

सबै सहाय की सबल के, को उन निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहि देत बुझाय ।। ८ ।।

                                        - वृन्द

 

Previous Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश