शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
सिंगापुर में भारत (विविध)    Print this  
Author:डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर

भारतीय नाम वाले महत्वपूर्ण रास्तों की कहानी

रास्ते जीवन के वे पहलू हैं जिनसे हमारा वास्ता पड़ता ही है। कभी हम सही रास्ते पर होते हैं तो कभी हम रास्ते को सही करने की कोशिश करते हैं। यह एक शब्द बड़े-बड़े अर्थ समेटे रहता है। बहुत गहराई में न जाते हुए अगर इसके शाब्दिक रूप को भी लिया जाए तो हर देश में, हर शहर में, हर गाँव में अलग-अलग रास्ते होते हैं जिनका एक नाम होता है। जी हाँ कोई भी सड़क या रास्ता बेनाम नहीं होता है। याद कीजिए भारत में रिक्शेवाले को तय करते समय पहला वाक्य होता है “फलां जगह चलोगे?” और अगर वह रास्ता नहीं जानता तो हम तुरंत बताने लगते हैं “पहले फलां रास्ते से चलो, फिर फलां रास्ते से मुड़ जाना......” और आज ‘गूगल बाबा’ भी तो यही कर रहे हैं तो यह तो तय हो गया कि रास्ता और उसके नाम की बड़ी भूमिका होती है। इसी विषय को केंद्र में रखते हुए और ज़्यादा गंभीर न होते हुए सिंगापुर के उन रास्तों का ज़िक्र होगा जिनके नाम या तो भारतीय हैं या अगर भारतीय नहीं हैं तो कुछ ख़ास कहानी है उस नाम के पीछे। हर रास्ता एक कहानी कहता है। 

सिंगापुर\
सिंगापुर 


धोबीघाट

ब्रितानी शासन के अधीन रहने के कारण स्पष्ट सी बात है सिंगापुर के ज़्यादातर प्रसिद्ध प्रतीकों व सड़कों के नामों को पाश्चात्य रूप ही प्रदान किया गया होगा। पर कई ऐसे स्थान थे जिनका नामकरण चीनी,  मलय या भारतीय नामों के आधार पर हुआ था। कुछ नाम हिन्दी भाषा से भी जुड़े थे पर धीरे-धीरे समय के साथ ये नाम भी बदलते गए। आज़ादी के बाद सिंगापुर पर चीनी जाति का दबदबा होने के कारण व भारतीय नामों के उच्चारण में मुश्किल होने के कारण कई जगहों के नाम बदल दिए गए। पर आधुनिक सिंगापुर में कुछ स्थान आज भी हैं जिनका वास्तविक नाम जो हिंदी में था आज तक क़ायम है। उन्हीं में से सबसे मशहूर स्थान है ‘धोबीघाट’। अतीत पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाएगा कि ‘सुंगाई ब्रास बासाह’ जो अब ‘स्टैम्फ़र्ड कैनल’ के नाम से जाना जाता है, के घाटों या किनारों पर ही भारतीय धोबी कपड़े धोया करते थे। यह स्थान सिंगापुर के सबसे आधुनिक व मुख्य बाज़ार ‘ऑर्चर्ड रोड’ के पास ही है। सन् 1884  से 1924 तक ‘लेडिस लॉन टेनिस क्लब’ द्वारा अधिग्रहित पाँच एकड़ के खुले मैदान में ये धोबी कपड़े धोने के बाद सुखाते थे। इस ज़मीन को बाद में ‘धोबीग्रीन’ की संज्ञा दी गई। जिन जगहों पर कपड़े सुखाने का काम होता था उसे बाद में ‘ब्रास बासाह पार्क’ में तब्दील कर दिया गया और सन् 1988 में सिंगापुर के विकास की संस्था (यू आर ए) ने पार्क के विस्तार व पुनर्निमाण की योजना बनाई। 

धोबी घाट
 सिंगापुर का 'धोबी घाट' मेट्रो स्टेशन

धोबी का मतलब व्यावसायिक तौर पर कपड़े धोना और घाट का मतलब है स्थान या नदी-किनारे की सीढ़ियाँ। चूँकि यह स्थान नहर से निकला था और पानी की सुविधा उस समय इसी क्षेत्र में थी अत: धोबियों के लिए कपड़े धोना और सुखाना यहाँ आसान था। वे धोबी या तो बंगाली कहे जाते थे या मद्रासी। उत्तर भारतीय होते तो बंगाली और दक्षिण भारतीय होते तो मद्रासी। यह भी एक रोचक कथा है जिसका ज़िक्र फिर कभी।

उस समय ज़्यादातर भारतीयों द्वारा ही किए जाने वाले इस कार्य ने इस क्षेत्र को ‘धोबी घाट’ के नाम से मशहूर कर दिया। आज सिंगापुर आधुनिकता के नए आयाम छू रहा है पर इस स्थान का नाम आज भी ‘धोबी घाट’ ही है, हाँ, बोलनेवालों के उच्चारण की त्रुटि के कारण उसमें अंग्रेज़ीपन आ गया है और वह ‘धोबीगौट’ या ‘दोबीघौट’ हो गया है। हालाँकि अब यह क्षेत्र सिंगापुर के सबसे महँगे क्षेत्रों में से है और धोबी या कपड़े धोने की एक-आध आधुनिक दुकानों के अलावा बाकी सब कुछ सिंगापुर के अनुसार ही है फिर भी इस नाम का अर्थ और इतिहास जानना कईयों की दिलचस्पी है। 

 

मिस्त्री रोड 

Mistri Road Singapore
सिंगापुर का मिस्त्री रोड

सन 1955 में ‘तन्जोंग पागार’ क्षेत्र के पास एक सड़क का नाम ‘मिस्त्री रोड’ रखा गया। भारतीय मूल के पारसी व्यापारी श्री नवरोजी आर मिस्त्री की याद में इस सड़क को यह नाम मिला जो आज तक बरक़रार है। यह सड़क सिंगापुर के एक पुराने अस्पताल (सिंगापुर जनरल हॉस्पिटल) के पास है। श्री नवरोजी आर मिस्त्री को सिंगापुर में चिकित्सा कारणों में उनके उदार योगदान के लिए सबसे ज़्यादा याद किया जाता है। उन्हें ‘गरीबों का मसीहा’ माना जाता था। श्री नवरोजी मिस्त्री सन 1909 में सिंगापुर आए और उन्होंने कई वर्षों तक ‘डॉक’ और वातित जल कंपनी में काम किया। सन 1925 में उन्होंने सोडा पानी बनाने का अपना व्यवसाय शुरू किया जिसे बाद में पूरे मलाया क्षेत्र तक फैलाया। सन 1952 में जब वे ख़ुद अस्पताल में भर्ती थे, उन्होंने साढ़े नौ लाख डॉलर का दान दिया ताकि बच्चों के लिए अस्पताल में एक अलग ‘ब्लॉक’ बनाया जा सके और जो माता-पिता चिकित्सा-शुल्क नहीं दे सकते हैं, उनके बच्चों का इलाज नि:शुल्क किया जाए। उन्हें यह देखना बर्दाश्त नहीं होता था कि पैसे के अभाव में माता-पिता अपने बच्चों का इलाज़ नहीं करवा पा रहे।  यही नहीं बल्कि अपनी मृत्यु के समय उन्होंने अपना आधा धन सिंगापुर, मलाया और भारत में दान कर दिया था।

Mistry
नवरोजी आर मिस्त्री

उनके इस दान-कार्य को हमेशा याद करने के लिए उनके नाम पर इस सड़क का नाम ‘मिस्त्री रोड’ रखा गया और उनके द्वारा बनवाए गए ‘ब्लॉक’ का नाम ‘मिस्त्री विंग’। 

मुंशी अब्दुल्ला एवेन्यू
Munshi Abdullah Avenue

‘मुंशी अब्दुल्ला एवेन्यू’, एंग मो कियो में ‘टीचर्स एस्टेट’ के भीतर की सड़कों में से एक है। इस का नाम मलक्का में जन्मे अब्दुल्ला बिन अब्दुल कादिर अरब, भारतीय और मलय वंश के प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक के नाम पर रखा गया था। मुंशी अब्दुल्ला आधुनिक मलय साहित्य के पिता के रूप में व्यापक रूप से सम्मानित थे। मुंशी अब्दुल्ला छोटी उम्र से ही एक

कुशल मलय विद्वान थे। अपनी मूल मलय भाषा के अलावा, वह अरबी, तमिल, हिंदुस्तानी और अंग्रेजी बोल और लिख सकते थे। वे सन 1819 में सिंगापुर आए। उनकी पुस्तक ‘हिक़ायत अब्दुल्ला’ में हिन्दुस्तानी ब्राहमणों की कई अनोखी बातों का ज़िक्र है, जैसे- “वे पेट पर एक धागा पहनते थे और तब तक खाना खाते थे जब तक कि वह धागा टूट न जाए।” चूँकि उन्हें हिन्दुस्तानी और तमिल भाषा भी आती थी इसलिए ब्रिटिश मिशनरियों, व्यापारियों और अधिकारियों के अलावा उन्होंने भारतीय सैनिकों को भी मलय की शिक्षा दी। 


पिल्लई रोड
पिल्लई रोड


हालाँकि नाम पढ़ते ही आपको अहसास हो जाएगा कि यह तमिल नाम है पर इस रोड का ज़िक्र करना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आँकड़ों के हिसाब से नारायण पिल्लई ही पहले भारतीय थे जो सन 1819 में सिंगापुर पहुँचे। आधिकारिक तौर पर सन 1957 में, पिल्लई रोड का नाम नारायण पिल्लई के नाम पर रखा गया था। उन्होंने कपास व्यापारी बनने से पहले औपनिवेशिक प्रशासन में एक क्लर्क के रूप में काम किया था। नारायण पिल्लई का सिंगापुर के भारतीय समाज में कई योगदान रहा, जिनमें से एक अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान पूजा-स्थल के लिए प्रयास था। उन्होंने सन 1827 में सिंगापुर में पहले हिन्दू मंदिर ‘श्री मरियम्मन मंदिर’ के निर्माण के लिए साउथ ब्रिज रोड पर भूमि का अधिग्रहण किया, जो आज सिंगापुर का सबसे पुराना हिंदू मंदिर है और

पर्यटकों के आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र है। एक सामुदायिक नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा बहुत रही।

 

लिटिल इंडिया
लिटिल इंडिया सिंगापुर
अब यह तो अंग्रेज़ी नाम है पर सिंगापुर में भारतीयों की बात हो और ‘लिटल इंडिया’ को छोड़ दिया जाए तो भला कैसे संभव हो, इसलिए इसका ज़िक्र भी अत्यंत ज़रूरी है। भारत से हज़ारों मील दूर एक छोटे से द्वीप पर आपको अगर यह नाम सुनाई दे तो अचम्भा भले ही न हो पर एक पल के लिए मन कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य हो जाएगा। 18 वीं शताब्दी की महत्ता और किसी के लिए हो या नहीं पर भारत व भारतीयों के जीवन में एक ऐसे बदलाव का प्रारम्भ है जिसने भारतीयों के साथ ‘प्रवासी’ जैसा शब्द जोड़ दिया जिसने भारतीय डायस्पोरा के गठन में अहम भूमिका निभाई। सिंगापुर का लिटिल इंडिया (सरेंगुन रोड) वही क्षेत्र है जिसे भारतीय प्रवासियों के लिए ब्रितानी शासन के जातीय विभाजन के आधार पर बनाया गया था ताकि भारतीय यहाँ निवास कर सकें। हालाँकि स्वतंत्र सिंगापुर में प्रजातीय एकता व सौहार्द्र पर काफ़ी बल दिया गया और यही कारण है कि आज भारतीय सिंगापुर

द्वीप के कोने-कोने में बसे हुए हैं। सिंगापुर का लिटिल इंडिया (सरेंगुन रोड) वही क्षेत्र है जिसे भारतीय प्रवासियों के लिए ब्रितानी शासन के जातीय विभाजन के आधार पर बनाया गया था ताकि भारतीय यहाँ निवास कर सकें। हालाँकि स्वतंत्र सिंगापुर में प्रजातीय एकता व सौहार्द्र पर काफ़ी बल दिया गया और यही कारण है कि आज भारतीय सिंगापुर द्वीप के कोने-कोने में बसे हुए हैं लेकिन पहले लगभग सभी भारतीय इसी क्षेत्र में रहते थे और यह क्षेत्र ‘सरेंगून रोड’ के नाम से ही जाना जाता था। आज भी बड़े स्तर पर सरेंगून रोड ही है पर उस पूरे ‘सरेंगून’ का एक क्षेत्र ‘लिटल इंडिया’ है। लिटिल इंडिया वह स्थान है जहाँ सिंगापुर में मनाए जाने वाले भारतीयों के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावली की झलक आपको दिखाई देती है। कार्तिक महीने की शुरुआत होते ही यह क्षेत्र रंग बिरंगी बस्तियों से सज जाता है। इस पूरे क्षेत्र में हर स्थान पर आपको भारतीयता का प्रभाव दिखाई देता है ये अलग बात है कि दक्षिण भारतीय प्रभाव ज़्यादा है और समय के साथ उत्तर भारतीय प्रभाव भी बढ़ने लगा है भारतीयों की ज़रूरत के मुताबिक गहने, साड़ियाँ, महिलाओं के अन्य वस्त्र, धोती, कुर्ता, बर्तन, पूजा पाठ की सामग्री इस तरह की तमाम चीज़ें इस लिटिल इंडिया में बड़ी आसानी से मिल जाती हैं भारत से आने वाली सब्ज़ियाँ चाहे सहजन की पत्तियाँ हों, या कटहल हो, सेम हो, मटर हो, ये सभी कुछ लिटिल
इंडिया की छोटी-छोटी दुकानों में बड़ी सुविधा से मिल जाती हैं और लोग ख़रीद कर अपने भारत को कम ‘मिस’ करते हैं। 
एक लोकप्रिय सिंगापुर यात्रा गाइड के अनुसार- “आप भारत तीन तरीके से पहुँच सकते हैं; हवाई यात्रा, समुद्री यात्रा और सरेंगुन रोड
(लिटिल इंडिया) तक पैदल चलकर।” इसका मतलब तो साफ़ हुआ कि भारत की कुछ ‘खास खूबियाँ’ यहाँ भी आपको मिल जाएँगी तो सिंगापुर में “अगर कहीं गाड़ियों का भोंपू सुनाई दे, बिना यातायात सिग्नल के लोग सड़क पार करते दिखें, लोगों की बातचीत की ध्वनि पूरे वातावरण में समा रही हो, भारतीय मसालों और चमेली के फूलों की खुशबू से वातावरण सुगंधित हो रहा हो, कहीं तोते से आपका भविष्य बताने की सिफ़ारिश चल रही हो तो समझ लीजिए कि आप लिटिल इंडिया पहुँच गए हैं।“

भारतीय संस्कृति को संरक्षित रखने का पूरा प्रयास इस क्षेत्र में दिखाई देता है। बात चाहे भारतीय परिधानों की हो चाहे गहनों की। तमाम ऐसी दुकानें मिल जाएँगी जो साड़ियाँ, सलवार-क़मीज़, सोने-चाँदी के पारम्परिक गहने, बिन्दी, चूड़ियाँ, श्रृंगार के सामान बेचती हैं। सबसे ख़ास तो है लोगों का हुजूम जो इन चीज़ों को खरीदने और पहनने के प्रति आज भी उतना ही आकर्षित दिखाई देता है, जबकि भारत में कुछ ज़्यादा आधुनिकता दिखने लगी है। 

भारतीय व्यंजन

मानव कुछ करे ना करे पेट-पूजा तो अवश्य करता है और इसके लिए अगर उसे कोई कष्ट भी उठाना पड़े तो नहीं चूकता पर सिंगापुर में तो भारतीयों की खाने-पीने के मामले में चाँदी है। जहाँ पूरे द्वीप पर उसे दुनिया के हर कोने के लज़ीज़ व्यंजन मिल जाते हैं वहीं खासतौर पर लिटिल इंडिया में हर तरह के भारतीय व्यंजनों, चाट-पापड़ी और गोलगप्पों से लेकर इडली-डोसा, कबाब, जलेबी-रबड़ी तक का लुत्फ़ उठाया जा सकता है। ‘बनाना लीफ़ अपोलो’ नामक एक दक्षिण भारतीय रेस्तराँ तो विदेशियों में इतना लोकप्रिय है कि रेस्तराँ में भारतीय से ज़्यादा विदेशी ही दिखाई देंगे। कई भारतीय रेस्तराँ की कड़ियाँ भी यहाँ हैं जिनमें भारत के उसी स्वाद का आनन्द उठाने के लिए भारतीयों की कतार नज़र आती है।

लिटिल इंडिया के मंदिरों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता; इतने भव्य और स्वच्छ मंदिर जहाँ हर छोटे–बड़े त्योहार को मनाने की कोशिश रहती है। चाहे बात शिवरात्रि की हो या होलिका दहन की, सम्पूर्ण विधि-विधान से इनका आयोजन तो होता ही है साथ ही नित्य- पूजन के प्रति भी काफ़ी लगाव देखा जा सकता है और फिर भारतीयों के लगभग हर हफ़्ते लिटिल इंडिया आने का एक मुख्य कारण भगवान का दर्शन करना भी है। भई इसी बहाने कुछ भगवद्‍ भजन हो जाएगा और घर के सामान की ख़रीदारी भी। वैसे चाहे दक्षिण भारतीय हों या उत्तर भारतीय, अपनी व्यस्त दिनचर्या से कुछ समय निकालकर सप्ताह में एक बार मंदिर जाने का प्रयास करते हैं जो भारतीय संस्कृति के विदेश में भी जीवित रहने का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है। लिटिल इंडिया में कई दुकानें हैं जो लकड़ी के बने सुन्दर नक्काशीदार मंदिर बेचती हैं, हालाँकि इनके दाम आसमान छूते हैं और लोगों के घर भी भारत जैसे बड़े नहीं है, फिर भी लोगों के घरों में इन नक्काशीदार मन्दिरों का होना दिखाता है कि आज भी यहाँ भगवान के प्रति एक अटूट विश्वास की
सीढ़ी बरकरार है।

शनिवार और रविवार को लिटिल इंडिया इलाका काफ़ी चहल-पहल भरा रहता है। कई बार तो आपको लगेगा कि अरे, बिना टिकट ही मैं भारत पहुँच गया? चाहे पूजा-पाठ हो, राशन की ख़रीदारी हो, शाक- सब्ज़ी लेनी हो, पारम्परिक कपड़े, सजावट की चीज़ें लेनी हों; लोग लिटिल इंडिया का ही रुख करते हैं। रविवार को तो यहाँ आम जनता

कम दिखाई देती है पर भारतीय मजदूरों का गढ़ बन जाता है। हफ़्ते भर एक अनजाने देश, अनजाने वातावरण, अनजानी बोली के बीच कड़ी मेहनत करने के बाद न मजदूरों को भी अपनेपन की ललक लिटिल इंडिया खींच लाती है, जहाँ वे न सिर्फ़ अपने यार-मित्रों से मिलते हैं बल्कि रोज़मर्रा के कामों से एक अन्तराल भी लेते हैं।

हिन्दू रोड़ सिंगापुर

सिंगापुर में अन्य कई सड़कों के नाम हिंदी भाषा या भारतीय भाषाओं पर हैं जैसे हिन्दू रोड, बाबू लेन आदि| यह तो स्पष्ट है कि हर नाम ख़ास होता है।  शायद यही छोटी-छोटी खूबियाँ हैं जो इतने भारतीयों को सिंगापुर न सिर्फ़ खींच लाती हैं बल्कि स्थानीय परिवेश से इस प्रकार हिला-मिला देती हैं कि कई बार लगने लगता है कि वह अपना दूसरा घर ही है। आज यहाँ की आबादी में लगभग ८-९ प्रतिशत हिस्सा भारतीयों का शायद इसी कारण है और कुछ की जड़ें तो इस कदर गहराई तक समा गई हैं कि उन्हें तो यही अपना लगता है। सिंगापुर में भारतीयों और लिटिल इंडिया का साथ चोली-दामन के साथ की तरह ही एक दूसरे की महत्ता को दर्शा रहा है।

-डॉ संध्या सिंह 
 सिंगापुर

*सिंगापुर में भारत (विशेष सन्दर्भ उत्तर भारत), केन्द्रीय हिंदी संस्थान से प्रकाशित पुस्तक

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