शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
हंसी जो आज लब पर है | ग़ज़ल (काव्य)    Print this  
Author:विजय कुमार सिंघल

हंसी जो आज लब पर है, उसे दिल में छुपा रक्खो 
मुसीबत के दिनों के वास्ते कुछ तो बचा रक्खो 

दिया हासिल नहीं तो तोड़ लो सूखे हुए पत्ते 
समय की इस अंधेरी रात में कुछ तो जला रक्खो 

उसे हम किस तरह अपना हितैषी मान सकते हैं 
जो हमसे कह रहा है आंख से सपने जुदा रक्खो 

अगर इस पार से उस पार जाने की तमन्ना है 
उफनते पानियों में तैरने का हौंसला रक्खो 

बचत इस दौर में इससे बड़ी हो भी नहीं सकती 
बचाना है जो कुछ तुमको जमीर अपना बचा रक्खो

-विजय कुमार सिंघल

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