मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
बुद्धू बेलोग (कथा-कहानी)    Print this  
Author:प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड

बाली की लोक-कथा

बात काफी पुराने समय की है जब न टीवी थी ना रेडिओ, ना इंटरनेट ना फोन. इंडोनेशिया के द्वीप बाली में एक सीधा-साधा सा लड़का अपनी माँ के साथ रहा करता था। वो इतना सीधा था कि कोई न कोई बेवकूफी कर बैठता था और लोगों को लगता था कि ये तो बुद्धू है। पता नहीं उसका असली नाम क्या था लेकिन गाँव वाले उसे 'बेलोग' पुकारने लगे थे जिसका अर्थ बाली की भाषा में होता है- बुद्धू।

द्वीप के लोग अक्सर उसकी बेवकूफियों के किस्से एक-दूसरे को सुनाया करते थे और आनंदित होते थे। उनके लिए ये एक मज़े का विषय था। 'पता है आज बेलोग ने क्या किया?' या 'पता है पूजा वाले दिन बेलोग ने क्या किया?' इस तरह के वाक्य और फिर बेचारे हद से ज़्यादा सीधे बच्चे के किस्से, फिर सबके ठहाके।

एक मज़े का किस्सा तो आज हम भी सुनाते हैं। एक दिन की बात है दोपहर का खाना खा कर 'बेलोग' घर के बाहर खेल रहा था और माँ अंदर काम कर रही थी।

बेलोग की माँ ने दोपहर के खाने के बर्तन धोये, रसोई की पट्टी धोई, रसोई घर धोया और इस धोवाधाई में गलती से उसके हाथ से छूट कर माचिस की डिब्बी पानी में गिर गई। पानी अंदर चला गया और तीलियाँ भीग गईं यानी अब माचिस की तीलियां जलने वाली नहीं तो उसे चिंता हुई कि रात के खाने के लिए चूल्हा कैसे जलाऊंगी? घर में यही एकमात्र माचिस की डिब्बी थी।

उसने एक लोटे में, बचा-बचा कर, कुछ थोड़े से सिक्के जमा कर रक्खे थे। उसमें से गिन कर कुछ सिक्के निकाले फिर बाहर के दरवाज़े पर जा कर 'बेलोग' को आवाज़ दी-- " सुनो बेटा, ज़रा आओ तो।"

बेलोग पास आया तो उसकी मां ने कहा -" मैं ज़रा सी देर आराम कर लूँ, सब काम करके थक गई हूँ. तुम ज़रा दूकान तक चले जाओ और वहां से एक माचिस की डिब्बी खरीद लाओ."

माँ ने सिक्के उसे थमाते हुए हिदायत दी--"अच्छी डिब्बी लाना जो सीली हुई न हो, वरना तीलियां जलेंगी नहीं।"

"अच्छा माँ।" बेलोग ने कहा और सिक्के जेब में डालकर चल दिया।

ऐसी हिदायत माँ ने इसलिए दी क्योंकि बाली में अक्सर ही बारिश हुआ करती है और गाँव की एक मात्र दुकान से ध्यान न देने पर सीला हुआ सामान आ जाता है।

बेलोग इतना भी बुद्धू नहीं था। वो जानता था कि अगर सीली माचिस ले आया तो तीलियां नहीं जलेंगीं तो चूल्हा नहीं जल सकेगा यानी रात को खाना नहीं बन पायेगा। इसका मतलब भूखे पेट सोना पड़ेगा यानी कि माचिस की डिब्बी तो उसे देख-भाल कर ही खरीदना पड़ेगी।

यही सब सोचते-सोचते वह दुकान तक जा पहुंचा।

"पा, तोलोंग, एक अच्छी माचिस की डिब्बी देना जो सीली ना हो।" उसने दुकानदार से कहा।

(पा एक सम्मान का सम्बोधन है जो सभी बड़े पुरुषों के लिए प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ है पिता या पिता सामान और तोलोंग का अर्थ है - कृपया)

दुकानदार ने उसे एक माचिस की डिब्बी निकाल के दी और कहा, "ये ले जाओ बेलोग, बिल्कुल सीली नहीं है, सारी तीलियां भक्क से जलेंगीं।"

"त्रिमाकासी पा," बेलोग ने कहा और सिक्के उसे देकर, माचिस ले कर वापस घर की तरफ चल पड़ा।

(त्रिमाकासी यानि - धन्यवाद)

अब बेलोग चल पड़ा घर की ओर, ये सोचते हुए कि माचिस सीली नहीं है यानी तीलियां भक्क से जलेंगीं यानी कि चूल्हा जल सकेगा यानी कि रात को खाना बन पायेगा यानी कि भूखे पेट नहीं सोना पड़ेगा।

फिर उसने सोचा कि माचिस की डिब्बी तो देख-भाल कर नहीं खरीदी? दुकानदार ने कहा और मैंने मान लिया। अगर ठीक नहीं निकली तो शायद गांव वालों की तरह माँ भी मुझे बुद्धू कहेगी, लेकिन मैं इतना भी बुद्धू नहीं हूँ कि एक छोटा सा काम भी ढंग से ना कर सकूं!

सो वह रुका। जेब से माचिस निकाली। खोल कर देखी। 'मुझे तो लगता है ये ठीक है, बिलकुल बढ़िया', उसने खुद को आश्वस्त किया और माचिस जेब में रख कर आगे चल पड़ा।

कुछ दूर जाने पर फिर उसे विचार आने लगे कि जांच कर तो देखा नहीं, ऐसे देखने से तो पता नहीं चलेगा कि सचमुच भक्क से जलती है या नहीं।

सो वह फिर रुका। जेब से माचिस निकाली, खोली। एक तीली निकाली, जलाई। घिसते ही भक्क से जली। 'वाह, वाह बढ़िया है, उसके चेहरे पर मुस्कान खिल गई। माचिस जेब में रख कर वह फिर आगे चल पड़ा।

कुछ दूर जाने पर उसे फिर उसे विचार आने लगे कि सिर्फ एक तीली परखने से क्या ? अगर बाक़ी ठीक ना हुईं तो? सो उसने जेब से माचिस निकाली। बैठ कर आराम से एक-एक तीली जला कर परखी और संतुष्ट हो कर सब बटोर कर डिब्बी में भर कर चल दिया घर।

घर पहुंच कर माँ को पुकारा और जब वह सामने आई तो उत्साह के साथ बताया--"ये लो इबू (माँ), बढ़िया माचिस की डिब्बी लाया हूँ। बिलकुल सीली नहीं है, सब तीलियां रगड़ते ही भक्क से जलती हैं। दूकानदार ने कहा था कि ये अच्छी माचिस है लेकिन मैंने सिर्फ बात पर भरोसा नहीं किया, खुद एक-एक तीली जलाकर परखी। मैं बुद्धू नहीं हूँ ना माँ?"

माँ ने उसके हाथ से माचिस की डिब्बी ली, खोली। अंदर सब जली हुई तीलियाँ थीं। फिर उसने 'बेलोग' का भोला चेहरा देखा जिसपर तारीफ पाने की अपेक्षा तैर रही थी। उसकी आँख में आँसू आ गया।

"क्या हुआ इबू? कुछ गड़बड़ है?' उसने थोड़ा घबराते हुए पूछा।

"नहीं कुछ गड़बड़ नहीं है बेटा। बहुत अच्छी माचिस है। मैं अंदर से कुछ सिक्के ले कर आती हूँ, हम दोनों चल कर दूकान से एक और ले आएंगे। अच्छी माचिसें रोज़ नहीं मिलतीं", कहते हुए वह अंदर चली गई।

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माँ चाहती तो गुस्सा हो सकती थी, बुद्धू भी कह सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। सबका मानसिक विकास एक जैसा नहीं होता, मज़ाक उड़ने से आत्मविश्वास और घटता है। हमें सभी के साथ प्रेम और सद्भाव से ही पेश आना चाहिए।

- प्रीता व्यास

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