मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं  (काव्य)    Print this  
Author:शिवमंगल सिंह सुमन

दे दिए अरमान अगणित
पर न उनकी पूर्ति दी,
कह दिया मन्दिर बनाओ
पर न स्थापित मूर्ति की।

यह बताया शून्य की आराधना करते रहो--
चिर-पिपासित को दिया मरुथल, मगर निर्भर नहीं !
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

स्नेह का दीपक जलाकर
आह और कराह दी,
रूप मृण्मय दे, हृदय में
अमरता की चाह दी।

कह दिया बस मौन होकर साधना करते रहो--
'पा जिसे तू जी सका, खोकर उसे तू मर नहीं !'
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

गगन सीमाहीन, दुस्तर सिन्धु
परिधि अथाह दी,
आदि-अन्त-विहीन, मुझको
विषम-बीहड़ राह दी।

कह दिया, अविराम जग में भटकते फिरते रहो--
कर प्रवासी दे दिया परदेश, लेकिन घर नहीं !
गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

 
Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश