शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
दाँत (विविध)    Print this  
Author:प्रतापनारायण मिश्र

इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा-पूरा वर्णन कर सके । मुख की सारी शोभा और यावत् भोज्य पदार्थो का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक ( जुल्फ ), भ्रू ( भौं ) तथा बरुनी आदि की छवि लिखने में बहुत - बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हों को शोभा से सबकी शोभा है । जब दाँतों के बिना पला-सा मुँह निकल आता है, और चिबुक ( ठोड़ी ) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मिट्टी में मिल जाती है।

कवियों ने इसकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी हैं। वह बहुत ठीक है, वरंच यह अवयव कथित वस्तुओं से भी अधिक मोल के हैं । यह वह अंग है जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है। खाने का मज़ा इन्हीं से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी बुड्ढे से पूछ देखिए, सिवाय सतुआ चाटनेके और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगो के गले के नीचे उतार देने के दुनिया भर की चीजों के लिए तरस ही के रह जाता होगा। रहे कविता के नौ रस, सो उनका दिग्दर्शन मात्र हमसे सुन लीजिए -

शृंगार का तो कहना ही क्या है। अहा हा ! पान - रंग-रेंगे अथवा यों ही चमकदार चटकीले दाँत जिस समय बातें करने तथा हँसने में दृष्टि आते हैं उस समय नयन और मन इतने प्रमुदित हो जाते हैं कि जिनका वर्णन गूंगे को मिठाई है । हास्य रस का तो पूर्ण रूप ही नहीं जमता जब तक हँसते-हँसते दाँत न निकल पड़ें। करुण और रौद्र रस में दुख तथा क्रोध के मारे दाँत अपने होठ चबाने के काम आते हैं एवं अपनी दीनता ' दिखा के दूसरे को करुणा उपजाने में दांत दिखलाये जाते हैं। रिस में भी दांत पीसे जाते हैं । सब प्रकार के वीर रस में भी सावधानी से शत्रु की सैन्य अथवा दुखियों के दैन्य अथवा सत्कीर्ति की चाट पर दाँत लगा रहता है । भयानक रस के लिए सिंह-व्याघ्रादि के दाँतों का ध्यान कर लीजिए, पर रात को नहीं, नहीं तो सोते से चौंक भागेंगे । बीभत्स रस का प्रत्यक्ष दर्शन करना हो तो किसी तिब्बती साधु के दाँत देख लीजिए, जिनकी छोटी-सी स्तुति यह है कि मैल के मारे पैसा चिपक जाता है | अद्भुत रस में तो सभी आश्चर्य की बात देख-सुन के दाँत बाय मुँह फैलाय के इक्का बक्का रह जाते हैं । शान्त रस के उत्पादनार्थ श्री शंकराचार्य स्वामी का यह महामन्त्र है—

"भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते।
"सच हैं, जब किसी काम के न रहें तब पूछे कौन ?
"दाँत खियाने खुर घिसे, पीठ बोझ नहि लेय ।”

जिस समय मृत्यु की दाढ़ के बीच बैठे हैं, जल के कछुए, मछली, स्थल के कौआ, कुत्ता आदि दाँत पैने कर रहे हैं, उस समय में भी यदि सत्चित्त में भगवान् का भजन न किया तो क्या किया ? आपकी हड्डियाँ हाथी के दांत तो हुई नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आयेंगी । जीते जी संसार में कुछ परमार्थ बना लीजिए, यही बुद्धिमानी है। देखिए, आपके दांत ही यह शिक्षा दे रहे हैं कि जबतक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दन्तावली ) और अपने काम में दृढ़ हैं तभी तक हमारी अपनी प्रतिष्ठा है | यहाँ तक कि बड़े-बड़े कवि हमारी प्रशंसा करते हैं, बड़े-बड़े सुन्दर मुखारविन्दों पर हमारी मोहर 'छाप' रहती है। पर मुख से बाहर होते ही हम एक अपावन, घृणित और फेंकने योग्य हड्डी हो जाते हैं - " मुख में मानिक सम दशन बाहर निकसत हाड़" हम जानते हैं कि नित्य यह देख के भी आप अपने मुख्य देश भारत और अपने मुख्य सजातीय हिन्दू-मुसलमानों का साथ तन-मन-धन और प्रानपन से क्यों नहीं देते ? याद रखिए-- " स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते, दन्ताः केशा नखा नराः।"

हाँ, यदि आप इसका यह अर्थ समझें कि कभी किसी दशा में हिन्दुस्तान छोड़ के विलायत जाना स्थान भ्रष्टता है तो यह आपकी भूल है। हँसने के समय मुँह से दाँतों का निकल पड़ना नहीं कहलाता, वरंच एक प्रकार की शोभा होती है। ऐसे ही आप स्वदेश चिन्ता के लिए कुछ काल देशान्तर में रह आयें तो आपकी बड़ाई है। पर हाँ, यदि वहाँ जा के यहाँ की ममता ही छोड़ दीजिए तो आपका जीवन उन दांतों के समान है जो होठ या गाल कट जाने से अथवा किसी कारण विशेष से मुँह के बाहर रह जाते हैं और सारी शोभा खो के भेड़िये-जैसे दांत दिखाई देते हैं। क्यों नहीं, गाल और होठ दांतों का परदा है। जिसके परदा न रहा, अर्थात् स्वजातित्व की गैरतदारी न रही, उसकी निर्लज्ज ज़िन्दगी व्यर्थ है। कभी आपको दाढ़ की पीड़ा हुई होगी तो अवश्य यह जी चाहा होगा कि इसे उखड़वा डालें तो अच्छा है। ऐसे ही हम उस स्वार्थ के अन्धों के हक़ में मानते हैं जो रहें हमारे साथ, बनें हमारे ही देश-भाई, पर सदा हमारे देश- जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं । परमेश्वर उन्हें या तो सुमति दे या सत्यानाश करे। उनके होने का हमें कौन सुख ? हम तो उनकी जैजैकार मनायेंगे जो अपने देशवासियों से दांत काटी रोटी का बरताव ( सच्ची गहरी प्रीति ) रखते हैं । परमात्मा करे कि हर हिन्दू-मुसलमान का. देशहित के लिए चाव के साथ दाँतों पसीना आता रहे। हमसे बहुत कुछ नहीं हो सकता तो यही सिद्धान्त कर रखा है-

"कायर कपूत कहाय, दांत दिखाय भारत तम हरौ"

कोई हमारे लेख देख दाँतों तले उँगली दबा के सूझ-बूझ की तारीफ़ करे, अथवा दाँत बाय के रह जाये, या अरसिकतावश यह कह दे कि कहाँ की दाँताकिलकिल लगायी है तो इन बातों को हमें परवाह नहीं है। हमारा दाँत जिस ओर लगा है, वह लगा रहेगा औरों की दाँतकटाकट से हमको क्या?

अतः हम इस दन्तकथा को केवल इतने उपदेश पर समाप्त करते हैं कि आज हमारे देश के दिन गिरे हुए हैं। अतः हमें योग्य है कि जैसे बत्तीस दांतों के बीच जीभ रहती है वैसे रहें, और अपने देश की भलाई के लिए किसी के आगे दांतों में तिनका दबाने तक में लज्जित न हों तथा यह भी ध्यान रखें कि हर दुनियादार की बातें विश्वास योग्य नहीं हैं। हाथी के दाँत खाने के और होते हैं दिखाने के और।

-प्रतापनारायण मिश्र

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