मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
दर्द के बोल (काव्य)    Print this  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

उसको मन की क्या कहता मैं?
अपना भी मन भरा हुआ था।
इसकी-उसकी, ऐसी-वैसी,
जाने क्या-क्या धरा हुआ था!
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!

जब भी घंटी बजे फोन की
भागूँ, मन पर डरा हुआ था।
प्राण निगल गई, ये महामारी
हरकोई अधमरा हुआ था।
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!

पाना बिस्तर कितना भारी
लाइन में बस खड़ा हुआ था।
आत्म-निर्भरता का वह मंतर
जाने कहाँ पे गड़ा हुआ था।
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!

हँसकर बोला था वो लेकिन
मन से वो भी भरा हुआ था।
अस्पताल में उसका भी तो
कोई अपना पड़ा हुआ था।
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!

ईश्वर भला करेगा सबका
धरती पर वो पड़ा हुआ था।
अस्पताल में गैस नहीं है
मन ही मन में डरा हुआ था।
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!
चिंता मत कर, होगा अच्छा
बोला था, पर डरा हुआ था।
हाथ नहीं बेबस के कुछ भी
लगा, मैं जैसे मरा हुआ था।
उसको मन की क्या कहता मैं, अपना भी मन भरा हुआ था!

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

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