जो साहित्य केवल स्वप्नलोक की ओर ले जाये, वास्तविक जीवन को उपकृत करने में असमर्थ हो, वह नितांत महत्वहीन है। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।
मेरी बड़ाई | लघुकथा  (कथा-कहानी)    Print this  
Author:सुदर्शन | Sudershan

जिस दिन मैंने मोटरकार ख़रीदी, और उसमें बैठकर बाज़ार से गुज़रा, उस दिन मुझे ख्याल आया, "यह पैदल चलने वाले लोग बेहद छोटे हैं, और मैं बहुत बड़ा हूँ।"

और जब शाम को मैं और मेरी बड़ाई घर आए, तो हम दोनों खुश थे, और हमारे चेहरे सीढ़ियों के अँधेरे में चमकते थे।

और जब हम सोफ़े पर बैठ गए, तो मेरी छोटी बच्ची एक कुर्सी घसीटकर मेरे पास ले आई, और उसके ऊपर खड़ी होकर बोली-- "मैं तुमसे बड़ी हूँ। तुम मुझसे छोटे हो।"

और मेरे दिल में यह बात चुभी, और मैंने मुड़कर अपनी बड़ाई की तरफ़ देखा, मगर वह बिजली के प्रकाश में गायब हो चुकी थी।

-सुदर्शन

[झरोखे, हिन्द किताब्स लिमिटेड, 1947]

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