मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
पीहर (काव्य)    Print this  
Author:स्वरांगी साने

कविता में जाना
मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।

मुक़ाम पर पहुँचते ही
लिवाने आ जाते हैं शब्द

दिमाग का सारा ज़रूरी, गैर ज़रूरी सामान
रख देते हैं कल्पना की गाड़ी में।
घूमती हूँ मन की सँकरी-चौड़ी सड़कों पर
दरवाज़े पर ही खड़ी होती है
हँसती-मुस्कुराती कविता
वह माँ होती है मेरे लिए।

जब लौटती हूँ
तो सारे गैर ज़रूरी सामान का
संपादन कर छोड़ने आते हैं पिता की तरह विराम चिन्ह।

कविता के घर से
इस तरह लौट आती हूँ
जैसे लौटती हैं लड़कियाँ मायके से
बहुत कुछ लेकर।

- स्वरांगी साने

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश