वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

पापा-आपा (काव्य)

Print this

Author: अल्हड़ बीकानेरी

छरहरी काया मेरी जाने
कहाँ छूट गई
छाने लगा मुझ पे मोटापा
मेरे राम जी

मारवाड़ी सेठ जैसा,
पेट मेरा फूल गया
कल को पड़े न कहीं छापा
मेरे राम जी

रसभरे बैन कहाँ, घर
में भी चैन कहाँ
खो न बैठूँ किसी दिन आपा
मेरे राम जी

तीनों बहुओं की देखा-देखी
मेरी बुढ़िया भी
मुझको पुकारती है पापा
मेरे राम जी।

- अल्हड़ बीकानेरी

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश